Thursday, June 26, 2025
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अशोक वाजपेयी की आलोचना: देश, काल और व्‍याप्‍ति


हिंदी आलोचना का सौभाग्‍य है कि अपने प्रशासनिक दायित्‍वों के साथ-साथ अशोक वाजपेयी ने अपने कवि और आलोचक रूप को निरंतर अग्रसर किया है तथा एक निर्णायक स्‍तंभ की तरह आलोचना और कविता में अपना रथ जोत रहे के समर्पित भाव से डटे हुए हैं. कवि आलोचक के साथ यह मुश्‍किल होती है कि वह जिस रूप में अपनी कविता को सामने रखता है उसी के समतुल्‍य आलोचना का उच्‍चादर्श भी कायम रखना चाहता है. कभी-कभी आलोचक की रुचियां इतनी जड़ीभूत हो जाती हैं कि वह अपने से भिन्‍न विचार, मानक और फलश्रुति को मान्‍यता नहीं देता. यही वजह है कि नई कविता और नई कविता की आलोचना दोनों में छाये गतिरोध और जड़ीभूत आदर्शों के विरुद्ध मुक्‍तिबोध ने मोर्चा खोला और नई कविता की सीमित होती जा रही सौंदर्याभिरुचियों पर प्रश्‍नचिह्न खड़े किए. कविता में सत चित वेदना और संवेदनात्‍मक ज्ञान और ज्ञानात्‍मक संवेदन ऐसे स्‍वानुभूत प्रत्‍यय उनके यहां आते हैं जो समूची कविता को एक खास आकल्‍पि दायरे से बाहर ले जाने के लिए प्रतिश्रुति दिखते हैं. इस दृष्‍टि से मुक्‍तिबोध की कविता का माडल वही नहीं रहा जो निराला का था, अज्ञेय का था या शमशेर का था. एक ही कालखंड में देश, काल और परिस्‍थतियों की समझ सभी कवियों की भिन्‍न रही है. मुक्‍तिबोध की कविता जिस पूंजीवाद और साम्राज्‍यवादी शक्‍तियों व जड़ीभूति अंतर्दृष्‍टियों से लोहा लेती है, यह पक्ष न तो निराला में उतना घनीभूत रहा है न अज्ञेय में. शमशेर की अंतर्दृष्‍टि भी कविता के कलात्‍मक प्रत्‍ययों के उद्घाटन में ज्‍यादा निमग्‍न दिखती रही है, यथार्थ के नए बनते राजनीतिक पूंजीवादी समीकरणों के छिलके उतारने में कम. इस तरह मुक्‍तिबोध का कविता समय अन्‍य कवियों के कविता समय से अलग है. अशोक वाजपेयी जो उस वक्‍त के युवा कवियों में शुमार रहे हैं, एक तरफ वे शहर अब भी संभावना के एक ध्‍यानाकर्षी कवि के रूप में उभरते हैं दूसरी तरफ युवा कविता की आलोचना को लेकर फिलहाल में लामबंद होते हैं. लेकिन जैसा कि सुविदित है, जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी –अशोक वाजपेयी की कविता जीवन संबंधों और सांसारिकता के बोध से जितना संपृक्‍त दिखती है, उतना पूंजीवाद साम्राज्‍यवाद से आक्रांत नहीं. वह मनुष्‍यता के निरंतर गिरते सूचकांक और आजादी के बाद आजादी के फल चखने और भकोसने वाली राजनीतिक शक्‍तियों पर भी ज्‍यादा कुछ नहीं कहती बल्‍कि कविता में तेज बोलने वाले कवियों को अपने सवालों के दायरे में ले आती है.

साठ के आसपास से अशोक वाजपेयी का कवि और आलोचक साहित्‍यिक सोहबतों से अपने को समृद्ध करता हुआ आगे बढ़ता है। उसका कवि जितना परिष्‍कृत और शिष्‍ट संवरन के साथ दुरुस्‍त और लालित्‍य ललित भाव में विन्‍यस्‍त होता हुआ चलता है, वह धीरे धीरे जागतिक विपर्यासों और राजनीतिक विकृतियों को उस तरह नहीं देख पाता जैसा श्रीकांत वर्मा, रघुवीर सहाय और कैलाश वाजपेयी देख रहे थे। यहांतक कि धूमिल जिस तरह तत्‍कालीन सत्‍ता और लोकतंत्र के गठजोड़ को देखते और आलोचित करते हैं , वैसा असंतोष, जिरह, और मंतव्‍य अशोक वाजपेयी की कविता में दृष्‍टिगत नहीं होता। किन्‍तु एक आलोचक के रूप में वे अपने समय के विविधवर्णी कविता प्रयत्‍नों को आकलित अवश्‍य करते हैं। वे कविता का अपना एक मंच तैयार करते हैं जिसमें कविता की बहुवचनीयता और विभिन्‍नता को जगह देते हैं। उनके कविता के लोकतंत्र में वे बहुत सी आवाजें शामिल रही हैं जो मत मतांतर में अशोक वाजपेयी के कविता मिजाज से भिन्‍न नज़र आती हैं। पहचान सीरीज के कवियों में एक तरफ ज्ञानेंद्रपति और विष्‍णु खरे हैं, विष्‍णु नागर हैं तो दूसरी तरफ ऐसे कवि भी जिनके यहांकविता किसी बदलाव और वैचारिक आग्रहों की बेचैनीकी उपज नहीं न वह सत्‍ता को प्रश्‍नांकित करने व उसे कटघरे में खड़े रखने का उपक्रम ही नजर आती है। यही वजह है कि इस क्रिटिकल एबिलिटी के अभाव में अशोक वाजपेयी की कविता खुद में आत्‍मकेंद्रित होती गयी जैसा अज्ञेय के यहां होता गया है तथा वह सांसारिकता के भाव प्रभाव अनुभाव में डुबती उतराती रही है । जब देश में कांग्रेस की सर्वहारा उपेक्षित दृष्‍टि की मुखर आलोचना के साथ समाजवादी कवियों का एक दल कविता में उभरा जहां लोकतंत्र की तीखी आलोचना की जा रही थी, रघुवीर सहाय, धूमिल, विश्‍वनाथ प्रसाद तिवारी जैसे कवि आगे आ रहे थे, अशोक वाजपेयी की कविता इस आलोचना से बचती हुई अपना अलग देश काल और मिजाज बुन रही थी। इसलिए उनके पहले संग्रह में जो ताजगी और शुचिता नजर आती है वह भीतर से निकली चेतना की अनिंद्य आवाज थी, जिसे सर्वत्र सराहा और स्‍वीकारा गाया। लेकिन जैसे जैसेसमय के साथ साथ अशोक वाजपेयी कविता की राह पर बढ़ते गए, उनका आत्‍म उन की कविता पर हावी होता गया। यद्यपि यही आत्‍मबोध उनकीकविता की ताकत भी बना कि जब नामवर सिंह ने चुहलवश उनकी कविता को देह और गेह की कविता कह कर पुकारा तो लगा कि यह केवल चुहल नहीं बल्‍कि अशोक वाजपेयी की कविता का वाक्‍वैशिष्‍टय है । और यह तो अशोक वाजपेयी भी कहते रहे हैं कि बिना संसारी हुए कविता नहीं हो सकती। कविता ही जैसे सांसारिकों का अध्‍यात्‍म हो। धूमिल कहते थे कि कविता भाषा में आदमी होनेकी तमीज है तो अशोक वाजपेयी ने मुझसे एक बातचीत में कहा कि कविता भाषा का अध्‍यात्‍म है।

अशोक वाजपेयी की कविताएं खिड़की से झाँकती हुई किसी युवती-सी हैं

कविता से यह एकात्‍मकता उनके कवि व्‍यक्‍तित्‍व की विशेषता रही है। लेकिन जहां तक एक आलोचक के रूप में अशोक वाजपेयी की उपस्‍थिति का सवाल है वह बहुत ही तार्किक किस्‍म के जिरह और विश्लेषणों से भरी दिखती है। उनकी आलोचना के दायरे में सिर्फ काव्‍यालोचन ही नहीं, बल्‍कि समाजालोचन भी है, कलालोचन भी है, संगीत के वैशिष्‍ट्य का विवेचन अवलोकन निहित है। इसलिए पहले तो वह कविता को एक स्‍वायत्‍त कर्म मानते हैं जिस पर किसी भी बाहरी शक्‍ति का प्रभाव न हो। वह अपने आपमें निज और सामाजिक से रिश्‍ता बनाए रखे। उनकी आलोचना जिस तरह के समाज की परिकल्‍पना से भरी दिखती है उसमें किसी प्रकार की संकीर्णता की गुंजाइश नहीं है। इधर उन्‍होंने अपने वक्‍तव्‍यों में बहुवचनीयता ,बहुलता आदि पदों का भी खूब व्‍यवहार किया है किन्‍तु किस हद तक वे इसे अपनी कविता में बरत पाए हैं यह देखना लाजिमी है।

हाल ही में आई अशोक वाजपेयी रचनावली के दो खंड उनके आलोचनात्‍मक लेखन पर केंद्रित हैं। विदित है कि वे आलोचना में अपनी कृति फिलहाल से दाखिल हुए थे। उसकी भाषा विवेचना उग्रतर व आक्रामक लहजे वाली थी। वह साहसिक युवा लेखन और उसमें न्‍यस्‍त उग्रता और आक्रामकता की पड़ताल थी। यह अपने समय की युवा कविता की एक बेबाक पड़ताल थी जिसमें न केवल युवा कविता लक्ष्‍य थी बल्‍कि कविता और राजनीति और विचारों से विदाई जैसे आलेख भी हैं तथा बूढ़ा गिद्ध पंख क्‍यों फैलाए जैसे अज्ञेय आलोचना का आलेख भी। कहना न होगा कि उस दौर की आलोचना में अज्ञेय सहज ही युवा कवियों के निशाने पर थे। एक तरफ उन पर शीतयुद्ध के हामी होनेका लेबल लगा कर माक्‍र्सवादीशिविरोंसे आक्रमण हो रहे थे दूसरी तरफ राजनीति से धुर दूरी बरतने वाले कलावादी शिविरों का हमला भी हो रहा था। अज्ञेय ने भरसक उस समय भारत भवन से दूरी भी बना ली थी जिसका ब्‍यौरा उन्‍होंने हाल के अपने संस्‍मरणों में दिया है। कविता के दृश्‍यालेख प्रस्‍तुत करते हुए अशोक जी यह मानतेथे कि कविता में सपाटबयानी का ज्‍यादा ही बोलबाला है, शिल्‍प की बात कोई नहीं उठाता। यानी कवि कर्म से भाषा का रिश्‍ता गौड़ नहीं होना चाहिए न ही वह रेटारिक की शर्तो पर अग्रसर होना चाहिए। अचरज नहींकि वे मुक्‍तिबोध के करीब रहे हैं सो लंबी कविता की राह पर फैशनवश चलनेवाली कवियों की कविताओं को भी जिरह के नजरिये से देखतेथे जैसेकिवे आपद्धर्मका परिणाम न होकर शौकिया लिखी गयी हों। उन्‍हें धूमिल की पटकथा,मणि मधुकर की खंड खंड पाखंड पर्व और सौमित्र मोहन की लुकमान अली में अनुभव का विस्‍तार और गहरा संयोजन उतना नहीं दिखता था जितना उसकीस्‍फीति। यह सच भी है कि मुक्‍तिबोध की नकल पर लंबी कविता एक फैशन की तरह दृश्‍य में आई और कुछ लोगों ने नई कविता में लंबी कविता को एक मुहिम की तरह पेश किया। अनेक कवि इस जद में आए चाहे उनकी कविताओं का मह्फूम लंबी कविताकेयोग्‍य हो, न हो। उन्‍होंने कविताओं में चालू युक्‍तियों,चालू मुहावरों व अतिव्‍याप्‍त कथनों या अतिकथनोंकी भी आलोचना की जो कि उस वक्‍त की कविताओं में देखे जा रहे थे।

अशोक वाजपेयी ने शुरुआती दौर में कविता में समकालीनता और आधुनिकता की बात भी उठाई है। क्‍या कुछ तात्‍कालिक है और क्‍या समकालीन और इसके साथ जीवन के चिरंतन प्रश्‍न व समस्‍याएं हैं । उनका कहना है कि जो कवि मनुष्‍य के तात्‍कालिक संदर्भ तक सीमित रह जाते हैं व समकालीन तो हो सकते हैं पर आधुनिकनहीं। यही वे मानतेहैंकि आधुनिक कवि का समकालीन कवि होना अनिवार्यनहींहै। इसी तरह यह भी कि हर समकालीन कवि आधुनिक भी हो यह जरूरी नहीं। उन्‍हें मुक्‍तिबोध, शमशेर और रघुवीर सहाय की दुनिया अपने अपने ढंग से समकालीन है। लेकिन अज्ञेय की बाद की कविता समकालीन तनावोंसेकटजानेकेकारण एक सतही शाश्‍वतता से आक्रांत हो जाती है और अपनी जड़ें ही आधुनिकता से काट लेती है और समकालीन और आधुनिक दोनों ही तरह की प्रासंगिकताओं से नीचे गिर जाती है। (फिलहाल,पृष्‍ठ 18) उन्‍होंने फिलहाल में तलाश के दो मुहावरे के अंतर्गत कमलेशऔर धूमिल की कविताओं पर बात की है। उन्‍होंने कमलेश में भाषा की चित्रमयता और ऐंद्रिकता चिह्नित की है तो धूमिल में उन्‍हें किंचित नाटकीयता तो दृष्‍टिगत होती है पर साथ ही वे कहतेहैं कि धूमिल मात्र अनुभूति के नहीं,विचार के भी कवि हैं। उनके यहां अनुभूतिपरकता और विचारशीलता, अहसास और समझ एक दूसरे से धुले मिलेहैं और उनकी कविता मात्र भावात्‍मकस्‍तर पर नहीं, बल्‍कि बौद्धिक स्‍तर परभी संयोजित और सक्रिय होती है। (वही,पृष्‍ठ 25 ) पटकथा को वे लंबी व महत्‍वाकांक्षी कविता तो मानतेहैं किन्‍तुवहीं यह कहना नहीं भूलतेकि जनता संविधानसंसद प्रजातंत्र जैसेशब्‍दों के चालू मुहावरे में लिखी जा रही कविता की तरह पटकथा भी इन्‍हीं के इर्द गिर्दघूमती है।

अकविता की रूमानियत पर बात करतेहुए वे यह तो मानतेहैंकिअकविता में स्‍त्री एक वस्‍तुके रूप में नजर आती है, विद्रोह की नकली भंगिमाएं उसकेपास हैं,किन्‍तु यह कहना कि ‘ अकविता में अज्ञेय जैसा पुरुषत्‍व का अतर्कित दंभ हैजिसकेरहते स्‍त्री हमेशा पुरुष के नीचे स्‍थान पातीहै।’ यह बात आलोच्‍य हो सकती है कि अज्ञेय का पुरुषत्‍व उनकी कविता में लाउड तरीके से बोलता नजर जरूर आता है किन्‍तु अज्ञेय का पुरुषत्‍व अकविता के कवियों के पुरुषत्‍व से तुलनीय नही है। अज्ञेय में नफासत है, स्‍त्री के प्रति सम्‍मान है, उसे पीड़ा व कष्‍ट से बचाये रखने की शुभाशंसा भी नजर आती है। जैसे — ” जियो उस प्‍यार में जो मैंनेतुम्‍हें दियाहै/ उस दुख में नहीं, जिसेमैंनेबेझिझक पियाहै। ” सच तो यह फिलहाल के ही एक अन्‍य लेख ‘अकेलेपन का वैभव’ — में जो कि अज्ञेय केंद्रित आलेख ही है, उनकी एक कवितापर सम्‍मति दर्ज करतेहुए वे कहतेहैं कि ” यह कृतज्ञता और विनयशीलता अज्ञेय के अकेलेपन को डिह्यूमनाइज्‍ड होने से बचाती है तथा उनकी कविता में मानवीय गरमाई का एक प्रमुख उपकरण है। ” स्‍त्री विमर्श के कुछ कवियों की तरह वे भी अज्ञेय कीप्रेम कविताओं में अज्ञेय को संरक्षक और दाता के रूप में ही देखते हैं। किन्‍तु उपरिउद्धृत कविता से यह मानना कि प्‍यार देने के नाम भर से कवि स्‍त्री के लिए दाता में बदल गया है तो यह उनकी कविता का अल्‍पपाठ है। जबकि अगली ही पंक्‍ति में वह प्रेमिका को उस दुख से बचाने की बात कहता है जिसे वह बेझिझक पी जाता है।

अकविता की एक शिखर कविता लुकमान अली को जिरह के दायरे में रखतेहुए अशोक वाजपेयी पूरे पाठ के निहितार्थ से गुजरते हुए जिस निष्‍कर्ष पर पहुंचते हैं कि, ‘ पूरी कविता चित्रों,बिंबों, नामों, चुस्‍त फिकरेबाजी, सामान्‍यीकरणोंआदिका एक बेढब सा गोदाम बन कर रह गयी है’ — यह उनकी युक्‍तियुक्‍त काव्‍य दृष्‍टि का परिचायक बन गयी है, इससेशायद ही किसी को गुरेज हो। तभी तो हमारे समय के अनेक बड़े कवि भी अकविता के प्रभाव में आते आते रहे गए और बाद में महत्‍वपूर्ण कवि बन सके। चाहे वह कैलाश वाजपेयी हों, श्रीकांत वर्मा या चंद्रकांत देवताले।

अशोक वाजपेयी का व्‍यक्‍तित्व दूर से देखने पर अज्ञेय जैसा ही कलात्‍मक नजर आता है किन्‍तु अशोक वाजपेयी शुरु से ही अपने ही लगभगप्रतिरूप अज्ञेय की अनदेखी करते रहे । उनकी कविता में उनके पुरुषत्‍व के दंभ को देखना, उसे अकेलेपन के वैभवमें रिड्यूस कर देखना अज्ञेय के कवि व्‍यक्‍तित्‍व का भंजन है। कितनी नावों में कितनी बार से गुजरते हुए अज्ञेय की पदावली — व्‍यक्‍तित्‍व की खोज को यह कहना कि अगर ये कविताएं साक्ष्‍य मानीजाएं तो लगता है यह खोज समाप्‍त हो चुकी है और अब उनका मुहावराखोज का नहीं, सिद्धि का है। उन्‍हें उनकी कविता आत्‍म्‍दान का उत्‍सव लगतीहै। अनेकविध इस आलेख के जरिए अज्ञेय की पहचान को भंग करनेका जैसे अशोकजी ने बीड़ा उठा लिया हो। उन्‍हें यह संग्रह पिछले संग्रह की लीक पीटता हुआ लगता है जिसे पढ़ कर उन्‍हें ऊब भी होती है और चिढ़ भी। कहना न होगा कि अज्ञेय को इसी संग्रह पर बाद में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्‍कार प्रदान कियागया। अशोक जी कविता में विचार विवेक और समझ के कायल रहे हैं किन्‍तु विचार प्रणाली कविता पर किसी तरह हावी हो, वह किसी रूप में राजनैतिक हथियार बन जाए,या संकीर्ण मतवादिता रुचि की तानाशाही स्‍थापित कर कविता का अनंत संभावनाओं को दबा दे, इस दृष्‍टि के साथ वे कविता और राजनीति का रिश्‍ता देखते आए हैं। इसीलिए दूर तक उनकीखुदकीकविता राजनीतिक प्रभावों से बचती नजर आती है किन्‍तु नैतिक प्रभावोंसे नहीं। पूरी की पूरी कविता जैसे कुंवर नारायण के यहां किसी भी विचारधारासे आक्रांत नहीं है पर वह नैतिकता के मूल्‍योंसे विरत नहीं। वह नैतिकतो है पर राजनैतिकनहीं, इस अर्थमें अशोक वाजपेयी की कविता ही नहीं आलोचना भी इन चीजोंतत्‍वोंकीमुखालफत करती है कि कविता किसी मतवाद के हवाले हो जाए वह यह किसी राजनीतिक ध्रुवीकरण का हिस्‍सा बन जाए।

इसमें संदेह नहींकि फिलहाल अशोक वाजपेयी की प्रखर और युवा आलोचना दृष्‍टि का परिचायक है जहां श्रेष्‍ठ और बुजुर्ग तक के प्रति इस बात की क्षमा नहीं है कि वह वयस्‍क होने के नाते श्रेष्‍ठ समकालीन आधुनिकअथवा वरेण्‍यहै। यदि अशोक जी को प्रथमत: प्रमुख काव्‍यालोचक के रूप में मान लिया जाए तो कहा जा सकता है कि उन्‍होंने गए छह सात दशकों की कविता का गहरा मंथन किया हैतथा आलोचना को लेकर वे सर्वथा सक्रिय व जुझारूरहेहैं। उन्‍हें बाद के वर्षोंमें इस बात की चिंता नहींरही कि सत्‍ता या व्‍यवस्‍था उनकी मुहिम पर क्‍या रुख अख्‍तियार करेगी। कविता के तीन दरवाजे — अज्ञेय, शमशेर व मुक्‍तिबोध के कवि व्‍यक्‍तित्‍व का ऐसा सटीकविश्‍लेषण हैकि हम इन कवियों की पारस्‍परिकता और पारस्‍परिक भिन्‍नता को साफ साफ देख समझ सकतेहैं। वे यह मानने पर विवश भी करते हैंकिवे अज्ञेय के चाहे जितने बड़े आलोचक या विवेचक या निंदक रहे हों, कविता की वृहत्‍त्रयी अज्ञेय के बिना नहीं बन सकती। अज्ञेय शमशेर व मुक्‍तिबोध की यह त्रयी यह जताती है कि आधुनिक कविता के ये काव्‍य शक्‍तियां दूर तक युगपत प्रवाहकी तरह कविता को सींचती और तेजोमय बनाए रखती हैं। कविता के तीन दरवाजे में तीनों कवि अपना अपना वैशिष्‍ट्य रेखांकित करते हुए एक दूसरे से किन किन पहलुओं पर अलग खड़े दिखते हैं, अशोक वाजपेयी ने संभवत: पहली बार तीनों के इस विरल वैशिष्‍ट्य को बहुत ही साफगोई से उदघाटित किया है। अकादेमिक आलोचना के क्षेत्र में कविता की इस वृहत्‍त्रयी पर इससे पहले कोई उल्‍लेखनीय कृति नहीं आई है। अत: इसे वाजपेयी का अनन्‍य अवदान ही माना जाना चाहिए।

आलोचकों के सुविदित आलस्‍य की ओर जब तब इंगित करने वाले अशोक वाजपेयी ने भले ही एक दौर में बूढ़ा गिद्ध पंख क्‍यों फैलाए लिख कर उनकी आलोचना की हो पर उन्‍हीं पर अकेलेपन का वैभव और तारसप्‍तक के पचास वर्ष लिख कर अपनी अज्ञेयप्रियता भी प्रमाणित की है। शमशेर सदैव उनकी संवेदना के निकट के कवि रहे हैं तो मुक्‍तिबोध का नैकट्य भी उन्‍हें सुलभ रहा है। एक कलावादी कवि होते हुए भी अज्ञेय, शमशेर और मुक्‍तिबोध जैसे कवियों के असाधारण योगदान को अपनी आलोचनाओं और टिप्‍पणियों में जब तब रेखांकित करते हुए उन्‍होंने यह प्रमाणित किया है कि आलोचक और रसज्ञ के रूप में इन कवियों से उनकी अटूट मैत्री रही है और पूर्वग्रहों के बावजूद प्रगतिशील कवियों के सिरमौर मुक्तिबोध और शमशेर का अनिंद्य आकलन करने में उन्‍होंने कभी कोई चूक नहीं की जैसा कि आज के खेमेबाज़ आलोचक प्रगतिशील मूल्‍यों के नाम करते आए हैं।

यदि वे अज्ञेय के परंपरा बोध को अवलोकित करते हैं तो मुक्‍तिबोध के सजग इतिहास बोध को भी उसी उत्‍सुकता से निहारते हैं। शमशेर में वे परंपरा और आधुनिकता दोनों का अपूर्व साहचर्य पाते हैं। वे यह देख पाते हैं अज्ञेय की कविता जहां बेहद सुलिखित कविता है, शमशेर कविताओं के सचेत शिल्‍पी नजर आते हैं। इससे उलट मुक्तिबोध को वे औपन्‍यासिक गुणसूत्र का कवि मानते हैं। पर एक तल पर आकर इन तीनों के यहां आधुनिकता एक मूल्‍य के रूप में प्रश्रय पाती है। अशोक वाजपेयी पग पग पर तीनों की बारीक से बारीक खूबियों और एक दूसरे से अलगाने वाली प्रवृत्‍तियों की चर्चा करते हैं। वे कहते हैं,अज्ञेय के पास परिणत प्रज्ञा, परिपक्‍वता है तो मुक्‍तिबोध प्रक्रिया के कवि हैं। अज्ञेय के यहां लालित्‍य कृतज्ञता और स्‍वीकार है तो मुक्‍तिबोध के यहां चिंता और अस्‍वीकार है। शमशेर के काव्‍य में चित्रमयता और परिष्‍कार है तो अज्ञेय में शब्‍द, बिम्‍ब और स्‍मृतियों का वैभव। साहचर्य के साक्षी इन कवियों में उन्‍हें अज्ञेय में विवेक दिखता है तो मुक्‍तिबोध में अतिरेक और शमशेर में विवेक और अतिरेक का नाजुक संतुलन। कहना न होगा कि जब इन दिनों शुद्ध आलोचना का टोटा है, अशोक वाजपेयी ने अपनी व्‍यस्‍तताओं के बावजूद हिंदी कविता तीनों विलक्षण कवियों की शख्‍सियत और उनके काव्‍य में गहराई से उतर कर ढलान पर उतरती आलोचना को फिर एक रचनात्‍मक धक्‍के से अग्रसर किया है।

आलोचना के क्षेत्र में फिलहाल के अलावा कुछ पूर्वग्रह, सीढ़ियों से उतरते हुए, कविता के आंगन में और समय से बाहर जैसी कृतियों के अलावा कभी कभार स्‍तंभ के अंतर्गत अब तक लिखे गए सैकड़ों आलेख शामिल हैं जिसे ढंग से विषय,कथ्‍य, विचार, प्रसंग, कवि सम्‍मति, घटनाक्रम, ललित कला विवेचन के आधार पर वर्गीकृत कियाजाएतो यह कहा जा सकता है कि लगभग छह से ज्‍यादा सदी के अपने रचनाकाल में अशोक वाजपेयी से अपने समय का कोई भी घटनाक्रम,प्रसंग या विचार अनदेखा नहीं रहा है। वे भले ही कलावादी वृत्‍त के रचनाकार माने जाते रहे हों तथा मार्क्‍सवादियोंसे अलग थलग होने का बोध भी रहा है तथापि उनकी कविता अपने रस रंग में डूबी होनेके बावजूद वह आत्‍मरति, आत्‍मस्‍थ और आत्‍मज्ञापन से अभिभूत तो दिखती है पर समाज संसारसे उसका कोई अलगाव नहीं रहा ।उनकी कविता उनके उत्‍तर जीवन में समाज सम्‍मुख हुई है। वह आत्‍मवृत्‍त के दायरे को तोड़ कर अपने समय के राजनीतिक पाठ को भी समझनेकीचेष्‍टा से भरी हुई दिखती है। इसीलिए गुजरात प्रसंग, बाबरीप्रसंग, बढ़ती सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक कलात्‍मक जेहाद की जिद से भरे हुए भी वे दिखते रहे हैं। लेकिन हमारे काव्‍य संसार में प्रतिरोधी काव्‍य चेतना का जैसा विस्‍तार रहा है वैसा कुछ अशोक वाजपेयी के यहां नहीं दिखता। वे कविता में लाउड नहीं होते या स्‍फीति और नारेबाजीपर नहीं उतरते पर एक चाकचिक्‍य सरीखी पालिश्‍ड संवेदना वे कविता को वंचित नहीं रख पाते। इसीलिए जिस शिष्‍ट संवरन की बात उनके व्‍यक्तित्‍व पर चस्‍पा करते हुए कभी कृष्‍णा सोबती ने कही थी, वह शिष्‍ट संवरन उनकी कविता का भी उदात्‍त वैशिष्‍ट्.य है। वे आपात्‍काल पर चुप रहते हैं, यह बात तो समझ में आती है,किन्‍तु आज भी वे कांग्रेस के इस विपथन को अपनी कविता या विचार में कहीं लाने से बचते हैं। उन्‍होंने अपने उत्‍तर जीवन में सांसारिकता का चोला एकदम से उतार कर फेंक भी नहींदेते पर राजनैतिक प्रसंगों पर उत्‍तरोत्‍तर मुखर होतेहैं। बेव चैनलों पर आई इधर के कुछ वर्षों की कविताएं इसका साक्ष्‍य हैं।

जहां तक साहसिकता, बेबाकी व सचाई का सवाल है, अशोक वाजपेयी ने धारा के विरुद्ध जा कर सत्‍ता व व्‍यवस्‍था का प्रतिकार किया है । सड़कों पर मुहिम चलाईहै व युवा कविता में यह साहसिकता बची रहे इसके लिए रज़ा फाउंडेशन का मंच उपलब्‍ध कराया है। हमारे समय की ललित कलाओं का अनादर न हो, उनके स्‍थापत्‍य विवेक व सौंदर्यबोध पर चर्चाएं होती रहें इसका मंच पर भी उन्‍होंनेमुहैया करायाहै। कभी कभार के माध्‍यम से एक सार्वजनिक बुद्धिजीवीके रूप में हर हफ्ते लिखना पढ़ना एक तरह से समाज के लिए चौकसी रखने के समतुल्‍य है। साहित्‍य, कला,संगीत की प्रगतिशील इकाइयों से तादात्‍म्‍य रखते हुए भी अशोक वाजपेयी ने अपने व्‍यक्‍तित्‍व को किसी विचारधारा या वाद के हवाले नहींकिया है। उन्‍होंने अपनेसमय के अनेक कवियों धूमिल, कमलेश, रघुवीर सहाय,भारतभूषण अग्रवाल, शमशेर, त्रिलोचन, मुक्‍तिबोध, विनोद कुमार शुक्‍ल आदि पर मन से लिखा है। अपने मतभेद जाहिर किए हैं तथा उनकी कविताओं पर लिखते हुए क्रिटीक की आवश्‍यता जहां आन पड़ी है, उसमें संकोच नहीं किया है।

कविता का इस संसार से क्‍या ताल्‍लुक है, कविता से दूसरे अनुशासनों और प्रत्‍ययों से क्‍या रिश्‍ता है, विचार व संवेदना से क्‍यारिश्‍ता है इस तरह के अनेक पहलुओं पर सबसे ज्‍यादा चिंतन अशोक जी नेकिया है। वही हैं जो कविता में कविता , कविता में गल्‍प,कविता का देश, कविता का सत्‍य, कविता का समय, कविता और संसार, कविताऔर रुचि,कविता और विचारधारा, कविता और इतिहास,कविता और राजनीति, कविता और स्‍वंतत्रता, कविता और चित्र, कविता और मनुष्‍यता, कविता की मुक्‍ति, कविता और दुनिया, कविता और संगीत,कविता और प्रतिसंस्‍कृति जैसे विषयों पर समय समय पर कुछ न कुछ कहते लिखते पढ़ते रहे हैं । इस तरह कविता से उनकेलिए कोई भी विचार परे नहींहै। कला संगीत और संस्‍कृति के सवालों पर लिखने वाले आज कितने कम बचे हैं। सारा कुछ पूंजी के घटाटोप और बाजार की गिरफ्त में है। कला मंहगे मूल्‍य पर बिकरहीहै। कविता को किस तरह एक विचार के ध्रुवीकरण के अनुरूप ढालने का प्रयत्‍न हो रहा है ।सब कुछ बाजारऔर पूंजी के हवाले है। जाहिर है कि प्रलोभनों के इस युग में यह समय फिर कविता के लिए कठिन है। वाचिक कविता पूर्णत: मनोरंजनवादी हो चुकी है तो खबर और विचार के चैनल उपभोक्‍तावाद और सत्‍ता के लिए सोपान बन चुकेहैं। लेकिन कविता ही है जो आज भी प्रतिपक्ष में खड़ी है। अशोक वाजपेयी की कविता और आलोचना भी विचार वितर्क और बेबाकी का साक्ष्‍य है। कविता उनके लिए जिजीविषा का पर्याय है तो आत्‍मालोचन का माध्‍यम भी। उनकी कविता का समाजशास्‍त्र भले ही दुर्बल हो, किन्‍तु कविता का अंत:करण और अध्‍यात्‍म उन्‍नत। वह अनुभव के आभ्‍यंतरीकरण की प्रक्रिया का प्रतिफल है, बाह्य जगत के झंझावातों की विज्ञप्‍ति नहीं। आज जब समूचा बौद्धिक विवेक एक खास तरह के वैचारिक ध्रुवीकरण का शिकार और अनुगामी हो चला हो, अशोक वाजपेयी जैसे कम विवेकीबुद्धिजीवी लेखक समाज में बचे हैं जो अपनी राह अलग बनाए हुए हैं और अपने ही प्रतिसंसार के नियामक और अगुवा हैं। जाहिर है कविता के लिए और आलोचना के लिए भी जो साहस और बेबाकी और धीरज चाहिए उसकी प्रतिच्‍छाया अशोक वाजपेयी के आलोचना और विचार संसार में बखूबी दिखती है। उसमें देश, काल और परिस्‍थिति की पूरी व्‍याप्‍ति है।

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