बीते एक साल से इजरायल और फिलिस्तीन के बीच जंग जारी है। हमास ने 7 अक्टूबर को भीषण आतंकी हमला इजरायल में किया था और तब से आज तक एक भी दिन ऐसा नहीं गुजरा है, जब इजरायल ने कोई ऐक्शन न किया हो। यही नहीं बीते एक सप्ताह से इजरायल ने लेबनान में भी मोर्चा खोल दिया है, जो मुस्लिम बहुल देश है। वहां सक्रिय उग्रवादी संगठन हिजबुल्लाह पर हमलों के नाम पर इजरायल अब तक 2000 से ज्यादा एयर स्ट्राइक कर चुका है। इनमें करीब 700 लोग मारे भी जा चुके हैं। यही नहीं इजरायल का कहना है कि वह बातों से नहीं बल्कि ऐक्शन से ही जवाब देगा और लेबनान पर हमले नहीं रोकेगा।
गुरुवार को ही फ्रांस, अमेरिका, जापान के अलावा सऊदी अरब, कतर और यूएई जैसे देशों ने इजरायल और हिजबुल्लाह से सीजफायर की अपील की थी। अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों की ओर से शांति की अपील करना समझ में आता है, लेकिन जिस तरह सऊदी अरब ने भी इजरायल से यह मांग की है, वह थोड़ा अलग है। सऊदी अरब की इस्लामी देशों के रहनुमा के तौर पर दशकों से पहचान रही है। अफ्रीकी मुस्लिम देशों से लेकर पाकिस्तान तक में उसकी एक साख रही है और मुस्लिम उम्मा के नाम पर एकता की दुहाई दी जाती रही है। ऐसे में फिलिस्तीन और अब लेबनान पर उसकी चुप्पी कई सवाल खड़े करती है।
जानकार इसका जवाब सऊदी अरब की आर्थिक जरूरतों के तौर पर देखते हैं। सऊदी अरब बीते कुछ सालों से क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के नेतृत्व में अपनी अर्थव्यवस्था को नई शक्ल देने की तैयारी में है। वह विजन 2030 पर काम कर रहा है, जिसके तहत तेल की बिक्री से अलग स्रोतों से भी आय की कोशिश की जाएगी। इसी के तहत बड़े पैमाने पर स्पोर्ट्स, एंटरटेनमेंट के इवेंट्स सऊदी अरब ने कराए हैं। भविष्य में भी सऊदी अरब सर्विसेज, एंटरटेनमेंट, टूरिज्म जैसी चीजों के माध्यम से खुद को एक मजबूत अर्थव्यवस्था बनाना चाहता है।
पूरी दुनिया में ही जिस तरह से इलेक्ट्रिक वाहनों का क्रेज बढ़ रहा है और तकनीक में तेजी से सुधार आ रहा है। उससे तेल की जरूरत और उसकी खरीद में कमी आएगी। ऐसी स्थिति में सऊदी अरब के लिए वैकल्पिक व्यवस्था खड़ी करना जरूरी है। इसके लिए सऊदी अरब की निगाह अमेरिका, फ्रांस, ब्रिटेन जैसे देशों से निवेश पर है। इसलिए वह इजरायल के मुकाबले खड़ा होकर अपने मित्र अमेरिका समेत कई देशों को नाराज नहीं करना चाहता।
दुबई जैसे शहर बनाना चाहते हैं मोहम्मद बिन सलमान
मोहम्मद बिन सलमान तो सऊदी अरब में दुबई जैसे शहर भी बनाना चाहते हैं। इन सबके लिए विदेशी निवेश की जरूरत है। लेकिन इस्लाम के नाम पर मोर्चेबंदी करने से ऐसी स्थिति नहीं बन पाएगी। इसलिए सऊदी अरब कूटनीतिक दबाव तो बनाने की कोशिश करता है, लेकिन रणनीतिक तौर पर वह किसी खेमे में साफ तौर पर नहीं दिखना चाहता।