हाइलाइट्स
अदालतों में गीता के जरिए सच बोलने की शपथ लेने का काम मुगलों ने 18वीं सदी में शुरू किया
तब गंगा जल को भी हाथ में लेकर सच बोलने की कसम अदालतों में ली जाती थी
ये सवाल अक्सर उठता है कि अदालतों में सुनवाई और जिरह के दौरान वादी, प्रतिवादी और गवाहों से हिंदुओं की पवित्र पुस्तक गीता पर हाथ रखकर शपथ लेने को कहा जाता है. इसके लिए रामायण या रामचरित मानस का इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता. फिल्मों में हमने अक्सर ये सीन देखे ही होंगे. क्या आपको मालूम है अदालतों में गीता के जरिए सच बोलने की शपथ लेने का काम मुगलों ने 18वीं सदी में शुरू किया था.
हकीकत ये भी है कि अब भारत की किसी अदालत में भगवत गीता के जरिए सच की शपथ दिलाने का काम खत्म हो चुका है. 1969 में आखिरी बार भारतीय अदालतों में गीता का इस्तेमाल सच बोलने के लिए शपथ दिलाने के लिए किया जाता था. ये क्यों खत्म हुआ और मुगलों ने क्यों इसको शुरू किया था.
मुगल काल में ये माना जाता था कि अगर लोग अपनी पवित्र पुस्तकों पर शपथ लेंगे तो उनके झूठ बोलने की आशंका कम होगी. अंग्रेजों ने 1873 में भारतीय शपथ अधिनियम के साथ इस प्रथा को बदल दिया. हालांकि ब्रिटिश राज में कुछ हाईकोर्ट में ये परंपरा जारी रही.
मुगल काल और उसके बाद अंग्रेज राज में भी ये माना जाता था कि हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र ग्रंथ भगवत गीता है ना कि रामायण या रामचरित मानस. भारत में शपथ की अवधारणा मुगल काल के दौरान विकसित हुई, जब गवाहों को अपने धर्म की धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखना पड़ता था. हालांकि बॉलीवुड की फिल्मों ने इसे बहुत ग्लैमराइज किया.
फिल्मों में अक्सर अदालत के सीन में ये डॉयलाग जरूर होता था, जिसमें गवाह या अपराधी गीता (हिंदुओं की पवित्र पुस्तक) पर हाथ रखकर कसम खाता था कि वह जो कुछ भी बोलेगा, वो सच के अलावा कुछ नहीं होगा. हालांकि ये केवल एक मिथक ज्यादा था.

भारतीय अदालतों में शपथ के तौर पर पवित्र धार्मिक किताबों के जरिए शपथ का काम 1969 से पूरी तरह खत्म कर दिया गया. कोर्ट (Image:AFP)
ब्रिटिश काल की शुरुआत में शपथ की सुसंगत या एक समान प्रणाली स्थापित करने के लिए धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखकर शपथ लेने की परंपरा को खत्म कर दिया. सभी ट्रायल कोर्ट को इसके अंतर्गत लाया गया. इस कानून को ” भारतीय शपथ अधिनियम, 1873 ” के बाद उचित मान्यता मिली, जिसने सभी अदालतों में शपथ की एक समान प्रणाली का विस्तार किया गया. हालांकि बॉम्बे जैसे हाईकोर्ट में 1957 तक गैर-हिंदुओं और गैर-मुसलमानों के लिए पवित्र पुस्तक की शपथ जारी थी.
सवाल – मुगल काल में गीता या गंगा जल या कुरान पर हाथ रखकर क्यों शपथ दिलाई जाती थी?
– मुगल काल में जब कोई राजा किसी मामले को सुलझाने के लिए न्यायाधीश की भूमिका निभाता था तो गवाह को उसकी धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखकर शपथ लेनी पड़ती थी.हिंदू गंगा जल भी हाथ में लेकर शपथ ले सकते थे. कोई हिंदू कार्यवाही में कुछ भी कहते समय अपना हाथ गीता पर रखता था और कोई मुसलमान कुरान पर अपना हाथ रखता था. पहले ये माना जाता था कि समाज ईश्वर और अपने धर्म के प्रति बेहद वफादार है, इसलिए लोग अपने धार्मिक ग्रंथ की शपथ लेते समय केवल सत्य ही बोलेंगे.
सवाल – तो क्या गीता का न्यायिक प्रणाली में अब कोई रोल है?
– भारतीय अदालतों में न्यायिक प्रणाली में अब भगवत गीता का कोई रोल नहीं है. बस 1952 में उद्घाटन किए किए गए सुप्रीम कोर्ट भवन के ऊपर गीता का संस्कृत का शिलालेख है.

मुगल ये मानते थे कि कोई भी गवाह या अपराधी जब अपने धार्मिक ग्रंथ पर हाथ रखकर कसम खाएगा तो वो झूठ नहीं बोलेगा. हालांकि बाद में विधि आयोग ने ये व्यवस्था दी कि लोग धार्मिक पुस्तकों पर भी शपथ लेने के बाद झूठ बोल सकते हैं.
इसमें कहा गया है, ” यतो धर्महस्ततो जयः “, जिसका अनूदित अर्थ यह है कि जीत धर्म के पक्ष में खड़े लोगों की है, जैसा कि महाभारत में गांधारी से कहा गया था. महाकाव्य में, दुर्योधन और उनके अन्य पुत्र पांडवों के खिलाफ युद्ध जीतने के लिए इतने बेताब थे कि उन्होंने 18-दिवसीय युद्ध के हर एक दिन गांधारी का आशीर्वाद मांगा. तब गांधारी ने आशीर्वाद देने में सावधानी बरतते हुए कहा: “जीत धर्म की हो.” युद्ध में पांडवों की विजय हुई थी.
सवाल – ब्रिटिश सरकार ने इसे खत्म किया लेकिन किन अदालतों में ये जारी रही?
– 1873 में ब्रिटिश सरकार ने समान प्रणाली (भारतीय शपथ अधिनियम 1873) लागू करके इस प्रथा को खत्म कर दिया. हालांकि बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस प्रथा को 1957 तक जारी रखा. 28वें विधि आयोग की रिपोर्ट में मुद्दा उठाया गया कि जो लोग भगवान में विश्वास नहीं करते वे धार्मिक पुस्तकों की शपथ लेने के बाद भी झूठ बोल सकते हैं. इस मुद्दे पर विचार हुआ और इसे 1969 में अस्तित्व में लाया गया. तब पूरी तरह गीता पर शपथ लेने का काम हाईकोर्ट में खत्म कर दिया गया.
बांबे हाईकोर्ट और दूसरी हाईकोर्ट में 1969 तक एक ईसाई को न्यू टेस्टामेंट की, एक यहूदी को हिब्रू टेस्टामेंट की और एक पारसी को जूते पहनकर खुले ज़ेंड-अवेस्ता की कसम खानी पड़ती थी. एक हिंदू या मुसलमान सर्वशक्तिमान ईश्वर की उपस्थिति में अपने कथन की सत्यनिष्ठा से पुष्टि कर सकता था.
सवाल – क्या ब्रिटेन में अब भी अदालतों में गीता का इस्तेमाल शपथ के लिए होता है?
– हां, ब्रिटेन की अदालतों में अब भी कोई भी हिंदू अदालत में गीता पर हाथ रखकर शपथ ले सकता है. इसे माना जाता है.
सवाल – अदालतों में शपथ क्यों लेनी पड़ती है?
– न्यायिक कार्यवाही में, गवाह शपथ लेने के बाद ही सच बोलने के लिए उत्तरदायी होता है. यदि कोई गवाह सच बोलने की शपथ लेने के बाद न्यायिक कार्यवाही में झूठ बोलता है, तो यह स्वयं भारतीय दंड संहिता, 1872 के तहत एक अपराध है. आईपीसी की धारा 193 झूठे साक्ष्य देने या गढ़ने के लिए सजा से संबंधित है लेकिन ये शपथ लेने के बाद ही लागू होता है. झूठे साक्ष्य देना या झूठे साक्ष्य गढ़ने पर 07 साल तक की सजा हो सकती है.
सवाल – क्या अब भी शपथ में देवता या ईश्वर के नाम से शपथ ले सकते हैं?
– 1969 के कानून के तहत, जो अब भी लागू है, कोई गवाह किसी विशेष धार्मिक संप्रदाय का जिक्र किए बिना किसी सार्वभौमिक देवता या ईश्वर की शपथ ले सकता है. निर्धारित प्रारूप के तहत गवाह या वादी-प्रतिवादी कहा गया था, ”मैं ईश्वर की शपथ लेता हूं. सचमुच कहता हूं कि मैं जो कहूंगा वह सच होगा, पूरा सच और सच के अलावा कुछ नहीं.”
सवाल – किस उम्र तक अदालत में शपथ लेने की जरूरत नहीं पड़ती?
– 12 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को ऐसी शपथ लेने की आवश्यकता नहीं है.
सवाल – अब भारतीय अदालतों में सबसे पवित्र पुस्तक कौन सी है?
– अब अदालतों के अंदर संविधान ही एकमात्र पवित्र पुस्तक है.इसी के जरिए न्याय की अवधारणा को अमल में लाया जाता है.
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Tags: Book, High Courts, Judiciary, Mughals, Oath
FIRST PUBLISHED : December 28, 2023, 13:04 IST