नरेंद्र मोदी के ये शब्द हैं. राम को लेकर मोदी की ये रचना काफी पुरानी है. पीएम मोदी उस वक्त सीएम भी नहीं थे. सरकार की जगह संगठन में थे. भारतीय जनता पार्टी की जम्मू और कश्मीर प्रदेश इकाई के लेटरहेड के एक पन्ने पर मोदी ने ये छोटी सी कविता लिखी थी.
राम मोदी के लिए क्या हैं, इसका परिचय कराती है ये कविता. राम मोदी के लिए सियासत का प्रतीक नहीं, भारत की मूल प्रकृति हैं. अगर भारतीयता की पहचान करनी है, तो वो राम के बिना संभव नहीं. राम भारतीय सभ्यता की सबसे बड़ी पहचान हैं, इस देश की हजारों वर्ष पुरानी सनातन परंपरा के सबसे बड़े संवाहक हैं. जो भी हमारे समाज के आदर्श मूल्य हैं, उसकी पहचान हैं राम.
राम को लेकर मोदी के ये भाव उस दौर के हैं, जब राम जन्मभूमि को लेकर आंदोलन तेज ही हुआ था. बीजेपी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या की रथयात्रा समस्तीपुर में खत्म कर चुके थे. बिहार में तब के सीएम लालू यादव ने इसे रुकवा दिया था, अपने को मुसलमानों का सबसे बड़ा मसीहा साबित करने के लिए, सेक्युलरिज्म की राजनीति चमकाने के लिए. ये पता भी नहीं था कि अयोध्या में राम जन्मभूमि को लेकर चलने वाला कानूनी और सियासी विवाद कब तक खत्म होगा.
ऐसे में ये भला कौन सोच सकता था कि अयोध्या में राम लला का भव्य मंदिर वाकई बन पाएगा. ये भी भला किसे पता था कि जो मोदी 1990 की रथयात्रा की तैयारी में भूमिका निभा चुके होंगे, उन्हें ही राम मंदिर को पूर्णता पर पहुंचाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाने का मौका मिलेगा. न सिर्फ वो पीएम की कुर्सी पर आसीन होंगे, बल्कि अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमिपूजन भी करेंगे और फिर उस मंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का मौका भी मिलेगा उन्हें. लेकिन ये सब कुछ सच हुआ. मोदी ने वर्ष 2014 में केंद्र में सत्ता की बागडोर संभालने के कुछ वर्षों के अंदर न सिर्फ राम जन्मभूमि के सदियों पुराने पचड़े को खत्म करने का सफल प्रयास किया, बल्कि यहां मंदिर निर्माण को तेजी से पूरा करने में भी बड़ी भूमिका निभाई.
आखिर ये कैसे हो पाया? कैसे मोदी भारतीय सभ्यता के सबसे बड़े प्रतीक राम को उनकी जन्मभूमि पर फिर से भव्य मंदिर के अंदर राम लला के तौर पर प्रतिष्ठित कर पाने की दहलीज पर लेकर आ गए?
क्या मोदी के लिए मंदिर आध्यात्मिक खोज और राष्ट्र चेतना का हिस्सा रहे हैं? क्या मोदी को ये संस्कार बचपन से ही हासिल हुए हैं? क्या मोदी राजनीति में रहते हुए भी सन्यासी हैं. क्या धर्म और अध्यात्म से ही उन्हें समाज सेवा के संस्कार मिले हैं? राम मंदिर का निर्माण मोदी के लिए क्या महज एक धार्मिक भवन का निर्माण है या फिर भारतीय सभ्यता और संस्कृति के प्राचीन मूल्यों को पूरी ताकत से विश्व मंच पर प्रतिष्ठित करने का मौका? राम मंदिर निर्माण के पूरा होने के साथ ही क्या हिंदू सनातन संस्कृति एक नई ऊंचाई छूने जा रही है?
इन तमाम सवालों के जवाब तलाशने के लिए हमें मोदी के जीवन के उन पृष्ठों में झांकना होगा, जो अध्यात्म, मंदिर, साधना से जुड़े हैं. मोदी के व्यक्तित्व का आध्यात्मिक पहलू ही इन सभी सवालों का जवाब दे पाने में समर्थ है, उपयोगी है. मोदी अमूमन अपने व्यक्तित्व के इस पहलू के बारे में कम ही बोलते हैं, कम ही खुलते हैं. लेकिन निगाह उनके जीवन पर बारीकी से डाली जाए, तो सूत्र तलाशे जा सकते हैं. कोशिश भी यही है. आखिर मोदी के मानस में कब और कैसे वो बीज पड़े, जिसने इक्कीसवीं सदी में भारतीयता और भारतीय मूल्यों को वैश्विक मंच पर स्थापित करने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है. इसी का प्रयास है ये विशेष लेखमाला.
मोदी, मंदिर और अध्यात्म (पार्ट -1)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुरुआती जीवन लीक से अलग हटकर था. जिस उम्र में बच्चे हुड़दंग करने में ज्यादा समय बिताते हैं, उस उम्र में मोदी मंदिरों और संतों के इर्द- गिर्द घूमते रहते थे. गुजरात के ऐतिहासिक शहर वडनगर की गलियों में पल- बढ़ रहा ये बालक अपनी खुशियां गौ और पीड़ितों की सेवा में तलाश रहा था.
गुजरात के महेसाणा जिले का छोटा सा कस्बा वडनगर. कला, धर्म और संस्कृति के मामले में प्राचीन काल से ही मशहूर, इतिहास के अलग-अलग कालखंडों में अलग-अलग नाम हासिल करने वाला ये नगर हिंदू, बौद्ध, जैन, सभी प्रमुख संप्रदायो का बड़ा केंद्र रहा है.
स्कंदपुराण में वडनगर को चमत्कारपुर के तौर पर वर्णित किया गया है, तो महाभारत में इसे आनर्तपुर कहा गया है. पहली सदी के आसपास वडनगर में इतनी समृद्थि थी, लोग इतने आनंद में थे कि इसे आनर्तपुर की जगह आनंदपुर ही कहा जाने लगा. क्षत्रप रुद्रदमन-1 के एक शिलालेख में वडनगर के लिए आनर्तनगर भी लिखा हुआ है. सातवीं सदी में भारत आए मशहूर चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने भी अपने यात्रा वृत्तांत में वडनगर का विस्तार से विवरण दिया है और इसे आनंदपुर के तौर पर चित्रित किया है.
समय-समय पर अलग–अलग नाम धारण करने वाले इस नगर के इतिहास को और बारीकी से टटोलने के लिए गुजरात के पुरातत्व निदेशालय और और केंद्र सरकार की एजेंसी, भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण यानी एएसआई ने भी वडनगर में पिछले दो दशकों में काफी खुदाई की है. इसके समृद्ध इतिहास से पर्दा उठाने में लगी दोनों ही एजेंसियों को जो अवशेष और सबूत अभी तक मिले हैं, उसके आधार पर पता चलता है कि इस नगर में पिछले सत्ताइस सौ वर्षों से लगातार रिहाइश रही है.

कीर्ति तोरण.
वडनगर के चारों तरफ प्राचीन काल से ही दीवारें हुआ करती थीं, दुर्ग जैसा शहर था वडनगर. इसकी निशानियां अब भी हैं, आधे दर्जन दरवाजों और कई जगह बची हुई दीवारों के तौर पर. शहर की ऐतिहासिकता का एहसास कराने के लिए कीर्ति तोरण भी हैं, जिसकी डिजाइन सिद्धपुर के रुद्र महालय के शिल्प से मिलती है. ये सभी भारत के सदियों पुराने समृद्ध वास्तुशिल्प की बेमिसाल निशानियां हैं.
शहर के अंदर मंदिरों की भी कोई कमी नहीं है. सबसे मशहूर, हाटकेश्वर मंदिर, जिसकी वजह से वडनगर के नागर ब्राह्ण पूरे देश-दुनिया में जहां कही भी हों, एकदूसरे को जय हाटकेश के साथ ही संबोधित करते हैं. मशहूर तालाब और कुंड भी हैं यहां, शर्मिष्ठा तालाब और गौरी कुंड का जिक्र तमाम साहित्य और धार्मिक ग्रंथों में मिलता है. शहर के ज्यादातर इलाकों के नाम या तो यहां मौजूद मंदिरों और दरवाजों के नाम पर हैं, या फिर यहां रहने वाली अलग- अलग जातियों और समुदायों के नाम पर. वडनगर के अंदर ब्राह्मण, पटेल, ठाकोर जैसी तमाम जातियों के लोग हैं, मुस्लिम भी बड़ी तादाद में हैं.

हाटकेश्वर मंदिर.
15 अगस्त 1947 को जब भारत स्वतंत्र हुआ, उस वक्त वडनगर बड़ौदा रियासत का हिस्सा था. पौने दो साल के अंदर ही बड़ौदा रियासत का विलय बंबई प्रांत में 1 मई, 1949 को हो गया, जिसके लिए विलय समझौते पर हस्ताक्षर किये थे बड़ौदा के तत्कालीन शासक महाराजा प्रतापसिंह गायकवाड़ और भारत सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर वीपी मेनन ने. तब वडनगर बंबई प्रांत का हिस्सा बन गया और फिर 1 मई 1960 को भाषाई आधार पर गुजरात के अस्तित्व में आने के बाद इसका हिस्सा.
ऐसे समृद्ध इतिहास और बड़ी विरासत संजोकर रखने वाले कस्बे वडनगर में हुआ नरेंद्र मोदी का जन्म, 17 सितंबर 1950 की सुबह. माता हीराबा ने इससे पहले तीन और संतानों को जन्म दिया था, एक बेटी, जिसका नाम शारदा रखा गया था और दो बेटे, सोमभाई और अमृतभाई. चौथे नंबर की संतान थे नरेंद्र मोदी. नरेंद्र मोदी के जन्म के बाद भी तीन संतानें और हुईं, प्रह्लादभाई, वसंतीबेन और पंकजभाई.
शारदाबेन का कम उम्र में ही निधन हो गया, जिनका जन्म हीराबा के मायके विसनगर में पिता हरगोविंद दास मोदी के घर हुआ था. परंपरा के मुताबिक, महिलाएं अपनी पहली संतान के जन्म के समय मायके ही रहती थीं. खुद हीराबा भी अपने माता-पिता की सबसे बड़ी संतान थीं, उनके बाद छह बहनें और तीन भाई-बाबूभाई मोदी, जयंतीलाल मोदी और हर्षदभाई मोदी. हीराबा की तरह ही दामोदरदास मोदी भी अपने माता-पिता की सबसे ज्येष्ठ संतान. 11 जून 1921 को जन्मे थे दामोदरदास मोदी, उनके बाद पांच भाई और एक बहन.
मोदी परिवार सनातनी, माता हीराबा और पिता दामोदरदास मोदी की धर्म-अध्यात्म में काफी रुचि, मंदिरों से गहरा नाता. आर्थिक तौर पर गरीबी थी, लेकिन संस्कार के तौर पर समृद्धि. माता हीराबा अनपढ़ थीं, लेकिन पिता दामोदरदास मोदी आठवीं तक पढ़े थे. वडनगर स्टेशन पर मौजूद चाय की दुकान बंद कर शाम में घर लौटने वाले दामोदरदास मोदी रोजाना रात के समय अपनी पत्नी और बच्चों को रामायण-महाभारत पढ़कर सुनाया करते थे.
परिवार के सभी सदस्य मंदिर जाते थे. वैसे भी वडनगर की जिस गली, मोदी ओड में ये परिवार रहता था, उसके बगल में ही ओंकारेश्वर महादेव मंदिर था, जो गिरीपुरी महाराज के मंदिर के तौर पर ज्यादा मशहूर है. मोदी ओड से खेलते-खेलते बच्चे दो सौ मीटर दूर इस मंदिर तक पहुंच जाते थे. और मौका अगर सुबह या शाम की आरती का हो, तो फिर पूछना ही क्या, पूरे उत्साह से इसमें शामिल होना रुटीन का हिस्सा था. जहां तक नरेंद्र मोदी का सवाल था, वो सुबह-शाम की आरती में सिर्फ ताली नहीं बजाते थे, बल्कि उनको पसंद था नौबत बजाना. नौबत यानी वो बड़ा ढोल, जो हर मंदिर में रखा होता था, आरती के समय वातावरण को गुंजायमान करने के लिए. ब़ड़े उत्साह से नौबत बजाते थे मोदी.
जब मोदी 2014 में बतौर पीएम पहली बार जापान की यात्रा पर गये थे, तो वहां उन्होंने ड्रम बजाने के मामले में एक सिद्धहस्त कलाकार से जुगलंबदी कर ली थी, बड़ी देर तक, ताल से ताल मिलाते हुए, ड्रम बजाते रहे थे मोदी. 2 सितंबर, 2014 का टोक्यो का वो दृश्य वहां खड़े कूटनीतिज्ञों और जापान के स्थानीय लोगों के लिए किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं था. उस समय भला किसे अंदाजा था कि कूटनीति के मंच पर बड़ा मुकाम हासिल करने वाले मोदी मंदिर में नौबत बजाने के बचपन के अपने हुनर को सांस्कृतिक कूटनीति के हथियार के तौर पर भी असरदार ढंग से इस्तेमाल कर पाएंगे.

शर्मिष्ठा तालाब.
पचास-साठ के उस दशक में मोदी परिवार के पास एक गाय भी थी, जिसे रोजाना नहलाने की जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी की थी. किशोरावस्था से ही मोदी इस गाय को शर्मिष्ठा तालाब में लेकर जाते थे, पहले गाय को नहलाते थे और फिर गाय को किनारे बांधकर खुद नहाते थे, कपड़े साफ करते थे, तैराकी करते थे. गौसेवा की बचपन से पड़ी ये आदत भारतीय संस्कृति के उस पहलू से भी मोदी का परिचय था, जिसमें गाय को मां का दर्जा हासिल है और गौसेवा को सबसे पवित्र, पुण्य का कार्य माना जाता है.
गाय की रोजाना सेवा करने वाले मोदी को संतों-साधुओं की सेवा करने की भी उतनी ही लगन थी. इसका बड़ा उदाहरण तब देखने को मिला, जब मां हीराबा की छोटी बहन, चंद्रिकाबेन की शादी होने जा रही थी और पूरा मोदी परिवार वडनगर से विसनगर जाने की जोर-शोर से तैयारी कर रहा था. मोदी उस समय सातवीं कक्षा में पढ़ते थे. जिस दिन विसनगर जाने की बारी आई, बाकी सभी सदस्य उत्साह से भरपूर, लेकिन किशोर नरेंद्र का जाने से साफ इंकार.
मां हीराबा को समझ में ही नहीं आया कि आखिर उनके नरेंद्र को हो क्या गया. अमूमन होता तो ये है कि रिश्तेदारी में जाने के नाम पर हर कोई खुश होता है और अगर मौका शादी-ब्याह का हो तो कहना ही क्या, अच्छे व्यंजन और भरपूर मनोरंजन की गुंजाइश रहती है. मोदी परिवार, जहां गरीबी के कारण मिठाई के नाम पर मोटे तौर पर हलवे जैसी लपसी से ही गुजारा करना पड़ता था, वहां शादी में मिलने वाले व्यंजनों की प्रबल संभावना से मुंह भला क्यों फेरना.
घर में आम तौर पर तो सिर्फ बाजरे की रोटी और कढ़ी ही बच्चों को मिलती थी. जब घर में कोई अतिथि आता था तो गेहूं की रोटी और सब्जी बनती थी. दिन में जौ बाजरे की रोटी बनती थी, उसी में से बचाकर रखी हुई रोटियों को शाम में गरमाकर चाय के साथ खा लिया जाता था. शादी में, और वो भी ननिहाल में, मौसी की शादी, न सिर्फ घूमना-फिरना होने वाला था, बल्कि बढ़िया भोजन की भी गुंजाइश थी. फिर उसे भला क्यों छोड़ना, मौसी की नाराजगी उठाने का खतरा अलग.
मां ने जोर देकर अपने तीसरे बेटे से पूछा कि इंकार की वजह क्या है. बेटे नरेंद्र ने जवाब दिया कि अगर वो शादी में गया तो फिर ओंकारेश्वर महादेव मंदिर में पिछले कई दिनों से साधना कर रहे उस साधु की सेवा कौन करेगा, जिन्होंने अपने शरीर पर मिट्टी डालकर ज्वार उगाया हुआ है. उस जमाने में साधु-संन्यासी अपनी तप, साधना, हठयोग के तहत इस तरह के कार्य किया करते थे. अगर शरीर पर ज्वार उगा हो तो फिर आप उठकर बैठ नहीं सकते, आपको लेटे ही रहना पड़ता है और आपको पानी पिलाने से लेकर खिलाने तक का काम किसी और को ध्यान से करना पड़ता है. नरेंद्र मोदी ने साधु की इसी सेवा की जिम्मेदारी ले रखी थी और उन्हें मौसी की शादी में जाकर व्यंजन और मनोरंजन का लुत्फ उठाने से अधिक ये पसंद था.
मां हीराबा ने अपने लाड़ले बेटे को कई बार समझाने की कोशिश की, लेकिन नरेंद्र मोदी साथ जाने के लिए तैयार नहीं हुए. बाकी पूरा परिवार विसनगर गया, मोदी अकेले वडनगर में रहे, साधु की सेवा करने के लिए. बचपन से ही धर्म, अध्यात्म, मंदिर और संन्यास को लेकर मोदी में कितनी रुचि पैदा हो चुकी थी, इसका ये संकेत था. मोदी उस समय महज सातवीं क्लास में पढ़ रहे थे.
जहां तक पढ़ाई का सवाल था, मोदी के लिए ये स्कूल भी संस्कार सिंचन के मंदिर थे. पहली से सातवीं तक की पढ़ाई मोदी ने जिस स्कूल से की, उसका नाम था दरबार स्कूल. गायकवाड़ी राज के जमाने में 1881 में इस स्कूल की स्थापना हुई थी, बड़ौदा के महाप्रतापी और सुधारवादी शासक सयाजीराव गायकवाड़ तृतीय के जमाने में. ये सयाजीराव ही थे, जिन्होंने देश में पहली बार अपनी रियासत के सबसे पिछड़े इलाके अमरेली से शुरुआत की थी, छह से 14 साल के आयु समूह वाले सभी बच्चों के लिए अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की. 1893 में अमरेली के दस चुनिंदा गांवों से जो शुरुआत हुई, सयाजीराव ने 1906 आते-आते अपनी रियासत के अंदर आने वाले सभी क्षेत्रों में छठी तक की शिक्षा अनिवार्य कर दी. बच्चे पढ़ सकें, साथ ही गरीबी उनकी राह में बाधा नहीं बन सके, इसलिए उन्होंने प्राथमिक शिक्षा को एक तरफ जहां अनिवार्य किया, वहीं इसे मुफ्त भी किया. यही नहीं, बच्चों में शिक्षा संस्कार के सिंचन के लिए करीब डेढ़ हजार पुस्तकालय भी खोले, जो रियासत के हर बड़े कस्बे में मौजूद थे.
मोदी के जन्म से करीब सवा साल पहले बड़ौदा रियासत का विलय बंबई प्रांत में हो चुका था, लेकिन गायकवाड़ी शिक्षा के आधार स्तंभ स्कूल और पुस्तकालय वडनगर में बढ़िया ढंग से काम कर रहे थे. मोदी न सिर्फ दरबार स्कूल में सातवीं तक पढ़े, बल्कि गायकवाड़ी राज में स्थापित वडनगर की लाइब्रेरी का भी खूब इस्तेमाल किया. इसी लाइब्रेरी में बैठकर मोदी ने अपने प्रेरणास्रोत स्वामी विवेकानंद के बारे में पहली बार विस्तार से पढ़ा.
मोदी के यही वो स्कूली दिन थे, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी लगातार अपनी गतिविधियां बढ़ा रहा था, छात्रों और युवाओं को अपनी तरफ आकर्षित कर रहा था. जिस साल मोदी का जन्म हुआ था, उसी साल यानी 1950 में संघ की पहली अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक हुई थी. उसके बाद 1952 में संघ ने गौरक्षा का अभियान अपने हाथ में लिया था. 1953 में जम्मू- कश्मीर से आर्टिकल 370 की समाप्ति के लिए अभियान छेड़ा गया था, जिसमें जनसंघ के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने अपने प्राणों की आहुति दी और हजारों संघ स्वयंसेवक उस आंदोलन में शामिल हुए, एक देश में दो विधान, दो प्रधान, दो निशान, नहीं चलेगा- नहीं चलेगा का नारा लगाते हुए. 1956 में संघ के सरकार्यवाह चुने गये एकनाथजी रानाडे ने 1963 में उस समिति का गठन किया, जिसको न सिर्फ कन्याकुमारी में विवेकानंद स्मारक बनाने की जिम्मेदारी निभानी थी, बल्कि देश भर में विवेकानंद जन्मशताब्दी समारोह का भी आयोजन करना था. रानाडे खुद आयोजन सह निर्माण समिति के सचिव बने.
संघ ने पूरे देश में स्वामी विवेकानंद जन्म शताब्दी समारोह के तहत छात्रों और युवाओं को अपने से जोड़ा. स्वामी विवेकानंद की जीवनी और उनके विचारों को हर भाषा में अनुवादित कर लोगों तक पहुंचाया गया. मोदी ने भी अपनी मातृभाषा गुजराती में स्वामी विवेकानंद का जीवन-दर्शन पढ़ा. यही वो समय था, जब वडनगर की शाखा में भी मोदी का बाल स्वयंसेवक के तौर पर जाना शुरू हो गया था. वडनगर की शाखा में ही मोदी की मुलाकात संघ के वरिष्ठ प्रचारक लक्ष्मणराव ईनामदार से पहली बार हुई, जिन्होंने आगे चलकर न सिर्फ मोदी को संघ का प्रचारक बनाया, बल्कि उनके जीवन में भी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, मार्गदर्शक बने वकील साहब.
मोदी के लिए संघ की शाखा कितनी अहम थी, इसका संकेत उनके एक शिक्षक ईश्वरभाई पटेल को हुआ, जो वडनगर के बीएन हाईस्कूल में गणित पढ़ाते थे. कक्षा एक से सात तक की पढ़ाई दरबार स्कूल से करने के बाद, जो बाद के दिनों में कुमार शाला नंबर-1 के तौर पर जानी गई, मोदी ने 1963 में कक्षा आठ में बीएन हाई स्कूल में एडमिशन लिया था.

बीएन स्कूल.
ईश्वरभाई पटेल उस वक्त कांग्रेस सेवा दल में सक्रिय थे, जबकि उनके छात्र मोदी संघ की शाखा में जाते थे. कांग्रेस उस वक्त गुजरात में काफी मजबूत थी, राज्य की स्थापना को तीन साल ही हुए थे. लेकिन गुरु और चेले आमने-सामने होते थे, मोदी संघ के स्वयंसेवकों की टीम के साथ खेल में प्रतिस्पर्धा करते थे, अपने शिक्षक ईश्वरभाई पटेल की सेवा दल की टीम के साथ. ये नहीं हुआ कि अपने शिक्षक के प्रभाव में आकर संघ की जगह सेवा दल में पहुंच जाएं मोदी. ईश्वरभाई ने अपना ये अनुभव 27 नवंबर 2005 को उस कार्यक्रम में साझा किया था, जो कार्यक्रम मोदी ने आयोजित किया था अपने शिक्षकों के सम्मान के लिए. वडनगर में मोदी को पढ़ाने वाले 28 ऐसे शिक्षक उस दिन अहमदाबाद के गुजरात कॉलेज के मैदान में इकट्ठा हुए थे और मोदी के बचपन, स्कूली दिनों के अनुभव साझा कर रहे थे. सबका मानना ये था कि मोदी में देशभक्ति बचपन से ही कूट कूट कर भरी थी, संघ के साथ जुड़ाव गहरा था. स्कूल के बाद कैसे संघ की शाखा और मंदिर की तरफ दौड़ लगाता था एनडी, सबको याद था. स्कूली दिनों में ज्यादातर शिक्षक और छात्र नरेंद्र मोदी को एनडी के नाम से ही पुकारते थे.
एनडी स्कूल, लाइब्रेरी, एनसीसी की ट्रेनिंग और संघ की शाखा के साथ ही सामाजिक-धार्मिक कार्यक्रमों में भी बढ़- चढ़कर शिरकत करता था. शिव और शक्ति, दोनों की आराधना. हाटकेश्वर मंदिर में महादेव की पूजा तो नवरात्रि के समय में गरबा गाते हुए शक्ति की आराधना. स्कूली दिनों में मोदी खूब उत्साह से गरबा करते थे. वडनगर की हवा में ही संगीत भरा हुआ था, आखिर ये नगर ताना और रीरी नामक उन दो बहनों तक भी तो नगर है, जो गायन कला में अकबर के नौ रत्नों में से एक तानसेन को भी मात देती थीं. जब अकबर ने इनकी शोहरत तानसेन के जरिये ही सुनी और अपने दरबार में बुलाना चाहा, तो इन बहनों ने अपनी जान दे दी, लेकिन वडनगर छोड़कर आगरा नहीं गईं. वे वडनगर के देवी-देवताओं की आराधना में गाती थीं, पैसे और रसूख के लिए उन्हें एक बादशाह के दरबार में गाना मंजूर नहीं हुआ. वडनगर के किशोर और युवा ताना- रीरी के समर्पण और गायन की कहानी बचपन से ही अपने बुजुर्गों से सुनते रहे हैं, मोदी ने भी अपने बचपन में ये सुना और प्रेरणा भी ली, अपने विचारों के प्रति दृढ़ रहने के सिलसिले में.
धार्मिक अवसरों का इस्तेमाल सामाजिक सेवा के लिए कैसे किया जाए, किशोर नरेंद्र ने ये भी वडनगर में ही सीखा. वहां के मशहूर चिकित्सक थे डॉक्टर वसंतभाई परीख. 1929 में जन्मे वसंतभाई ने जामनगर आयुर्वेदिक कॉलेज से मेडिकल की पढ़ाई की थी और फिर थोड़े समय की सरकारी नौकरी के बाद वडनगर में अपने मित्र डॉक्टर द्वारकादास जोशी के साथ मिलकर नागरिक मंडल अस्पताल शुरु किया था. रोगियों से कभी वो फी नहीं मांगते थे, जिसने जितना दे दिया, वही फी. ये समाजसेवी डॉक्टर सुदूर बिहार तक जाकर आंख चिकित्सा कैंप लगाते थे, मोतियाबिंद का ऑपरेशन करते थे. यही नहीं, बाढ़ हो या सूखा, देश भर में जहां भी संकट आए, डॉक्टर परीख राहत सामग्री और सहायता राशि भेजने में सबसे आगे.

चाय की दुकान.
डॉक्टर वसंत परीख की समाज सेवा को देखते हुए लोगों ने 1967 में उन्हें अपना विधायक भी बनाया. इन्हीं की अपील पर मोदी जब 11वीं में पढ़ रहे थे, अपने दोस्तों के साथ मिलकर गौरीकुंड पर होने वाले जन्माष्टमी के बडे मेले में चाय की दुकान लगाई थी. जरूरी सामग्री सारे दोस्त अपने घर से लेकर आए थे या फिर मेले के लिए मिली पॉकेट मनी का इस्तेमाल किया था. मोदी को अपने पिता से एक रुपये ही मिले थे, लेकिन घर से स्टोव और चादर लेकर आए थे मोदी. पूरे दिन दोस्तों के साथ चाय बेची और जो भी कमाई हुई वो भेंट कर दी डॉक्टर परीख को. ये मदद काम आई, बिहार के उन लोगों के लिए, जो 1966-67 के कालखंड में सूखे और बाढ़ दोनों से प्रभावित रहे थे.
मोदी बचपन में समाज सुधारक पांडुरंग शास्त्री अठावले से भी काफी प्रभावित थे. न सिर्फ खुद वडनगर में परमानंद गांधी के घर पर आए हुए पांडुरंग शास्त्री से मिलने जाते थे, बल्कि अपने सबसे छोटे भाई पंकज मोदी को भी सत्संग में शामिल होने के लिए प्रेरित करते थे. एक बार पंकज सत्संग की जगह कहीं और धीरे से खिसक गये, तो नरेंद्र मोदी ने छोटे भाई को डांट भी लगाई थी. मोदी को दादा आठवले के समाज सुधार के कामों में काफी रुचि थी.
वडनगर में 17 साल की उम्र तक नरेंद्र मोदी का समय ऐसे ही बीता, मंदिर, स्कूल, संघ की शाखा, समाज सेवा, भक्ति और आराधना के बीच, देश और समाज के ही नहीं, इसके बड़े नायकों, मसलन विवेकानंद, शिवाजी, महाराणा प्रताप, सरदार पटेल और सुभाषचंद्र बोस के बारे में जानते हुए.
लेकिन मां हीराबा को एक बात खटक रही थी. जब उनका लाड़ला नरेंद्र कुमार शाला नंबर 1 में पढ़ रहा था, एक संन्यासी ने हाथ देखते हुए कहा था कि या तो ये लड़का संन्यासी बनेगा या फिर कोई बड़ा प्रतापी व्यक्ति. बेटे का मंदिर, महात्मा, साधु-संतों और प्रचारकों के साथ ज्यादा समय बिताना मां को डरा भी रहा था, कहीं बेटा संन्यास की तरफ गया तो.
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FIRST PUBLISHED : January 3, 2024, 11:10 IST