Thursday, June 26, 2025
Google search engine
HomeBlogमोदी, मंदिर और अध्यात्म– 4: युवा नरेंद्र जब हिंदू समाज को जोड़ने...

मोदी, मंदिर और अध्यात्म– 4: युवा नरेंद्र जब हिंदू समाज को जोड़ने के काम में हाथ बंटाने लगे!


नरेंद्र मोदी की संन्यास की मनोकामना तो पूरी नहीं हुई, लेकिन रामकृष्ण आश्रम के साधुओं ने 18 साल के इस युवा को नई दिशा दिखा दी, समाज के बीच जाकर काम करने की, समाज सेवा की. मोदी का नया मुकाम बना अहमदाबाद का जगन्नाथ मंदिर, उनकी गतिविधियों का शुरुआती केंद्र राजकोट के रामकृष्ण मिशन आश्रम के प्रमुख स्वामी आत्मस्थानंद की सलाह मानकर नरेंद्र मोदी 1968 के आखिरी में वडनगर वापस लौट आए. लेकिन यहां लंबा रुकने के लिए नहीं, गृहस्थी बसाने या परिवार संभालने के लिए नहीं. अपने जीवन का एक और नया अध्याय शुरू करने के लिए, जिसकी सलाह इन्हीं स्वामीजी ने दी थी, समाज जीवन में प्रवेश के लिए, समाज की सेवा के लिए.

Narendra Modi Mandir and Adhyatma

मोदी की अगली मंजिल अहमदाबाद
मोदी की अगली मंजिल थी अहमदाबाद. गुजरात की स्थापना हुए आठ साल से अधिक हो चुके थे, लेकिन राजधानी तब भी अहमदाबाद ही थी. गांधीनगर के तौर पर नई राजधानी अस्तित्व में नहीं आई थी. शहर के मेघाणीनगर इलाके में, जहां आज भारत के सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों में से एक, अहमदाबाद सिविल हॉस्पिटल है, उसी के करीब की इमारत में गुजरात विधानसभा चला करती थी, गांधीनगर में विधानसभा के नये भवन का निर्माण होने के बाद ये इमारत सिविल हॉस्पिटल के ओपीडी का काम करने लगी और आज की तारीख में डॉक्टर जीवराज मेहता अस्मिता भवन के तौर पर जानी जाती है. जीवराज मेहता गुजरात के पहले मुख्यमंत्री बने थे और मशहूर चिकित्सक थे.

अहमदाबाद शहर की पहचान तब राजनीतिक केंद्र के साथ ही औद्योगिक शहर के तौर पर भी थी, ऐतिहासिक शहर तो था ही. टेक्सटाइल्स मिलों की बहुतायत के कारण इसे मैनचेस्टर ऑफ द ईस्ट कहा ही जाता था, स्थापत्य कला के हिसाब से भी शहर समृद्ध था. प्राचीन भारतीय हिंदू स्थापत्य के साथ ही जैन, मुगल, और इंडो- सारसेनिक आर्किटेक्चर से भी जुड़ीं सबसे अधिक इमारतें दिल्ली के बाद इसी शहर में थीं. लंबे समय तक लगातार मुस्लिम शासन रहा था अहमदाबाद में, इसलिए बड़ी- बड़ी मस्जिदें, मीनारें, दरगाह भरे पड़े थे इस शहर में.

कर्णदेव वाघेला थे अहमदाबाद के आखिरी हिंदू शासक
अहमदाबाद के आखिरी हिंदू शासक कर्णदेव वाघेला थे, जिसके नाम पर ये नगर कर्णावती के तौर पर जाना जाता था, उसके बाद ही यहां सल्तनत काल शुरू हुआ. सुल्तान अहमद शाह ने अपने नाम पर इस शहर को 1411 में नया नाम दिया, अहमद- आबाद, जो कालांतर में अहमदाबाद या फिर गुजराती में अमदावाद के तौर देश- दुनिया में जाना गया.

साठ- सत्तर के दशक में इस शहर में बड़े पैमाने पर देश के दूसरे हिस्सों से भी लोगों का आना हुआ. कपड़ा मिलों में काम करने वाले श्रमिक सुदूर तमिलनाडु और केरल से लेकर बिहार, बंगाल, उड़ीसा और उत्तर भारत के ज्यादातर राज्यों से आए थे. साराभाई और लालभाई जैसे औद्योगिक समूहों के प्रयास से महत्वपूर्ण शैक्षणिक संस्थान भी स्थापित होने लगे थे.

गांधी-पटेल की कर्मभूमि अहमदबाद
औद्योगिक नगरी के तौर पर मशहूर इस शहर में राजनीतिक चेतना भी काफी थी. ये स्वाभाविक भी था. आखिर बीसवीं सदी की शुरुआत में ये भारतीय राजनीति की दो सबसे बड़ी शख्सियतों, महात्मा गांधी और सरदार पटेल की कर्मभूमि भी रहा था. बैरिस्टर बनने के बाद सरदार पटेल ने अहमदाबाद की अदालत में ही प्रैक्टिस की थी और यहां की नगरपालिका के भी अध्यक्ष रहे थे. गांधी को उन्होंने पहली बार अहमदाबाद में ही देखा था, 1916 में, जब बंबई प्रेसिडेंसी पोलिटिकल कांफ्रेंस का आयोजन हुआ था, अध्यक्षता कर रहे थे मोहम्मद अली जिन्ना, जो उस समय हिंदू- मुस्लिम एकता के हिमायती थे, कम्युनल चेहरा सामने आना बाकी था.

महात्मा गांधी ने अपना आश्रम इसी शहर में खड़ा किया था, साबरमती के पश्चिमी किनारे में पहले कोचरब में और फिर कुछ किलोमीटर आगे, जो बाद में साबरमती आश्रम के तौर पर ही दुनिया भर में मशहूर हुआ. साबरमती के इसी आश्रम से अंग्रेजों की दमनकारी नीतियों के विरोध में गांधी ने 12 मार्च 1930 को दांडी कूच किया था, जो दुनिया के लिए एक नई दृष्टि थी. सविनय अवज्ञा का ये सिद्धांत दुनिया भर के राजनीतिक विश्लेषकों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों के लिए बड़ी पहेली था.

अहमदाबाद से पदयात्रा कर, दक्षिण गुजरात के दांडी नामक दरिया के किनारे बसे कस्बे में जाकर, समंदर के खारे पानी से नमक बना कर, ब्रिटिश साम्राज्यवाद को चुनौती देना, बिना किसी हिंसक गतिविधि के, कोई सोच भी नहीं सकता था. वो भी उस दौर में, जब ये कहा जाता था कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था, दुनिया का इतना बड़ा हिस्सा था अंग्रेज हुक्मरानों के कब्जे में.

महागुजरात के आंदोलन से बना नया गुजरात
आजादी के बाद भी अहमदाबाद में आंदोलन जल्दी ही शुरू हो गये थे. 1956 में शुरू हुए महागुजरात के आंदोलन के कारण ही तत्कालीन बंबई प्रांत से गुजराती भाषी इलाकों को निकालकर, अलग राज्य के तौर पर गुजरात का निर्माण हुआ, एक मई 1960 को. राज्य के अस्तित्व में आने के बाद पहले चुनाव 1962 में हुए थे, जहां सत्ता तो कांग्रेस के हाथ में ही रही थी, लेकिन स्वतंत्र पार्टी ने भी अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई थी. जिन पांच सौ पैंसठ रियासतों का स्वतंत्रता के साथ ही, सरदार पटेल की मेहनत से भारत में विलय हुआ, उनमें में से तीन सौ पचीस के करीब तो अकेले गुजरात में ही रही थीं। इन रियासतों के शासकों का कांग्रेस की जगह अमूमन स्वतंत्र पार्टी को समर्थन था.

19 साल की उम्र में अहमदाबाद पहुंचे मोदी
उन्नीस साल के मोदी जब 1969 में अहमदाबाद पहुंचे, उस समय हितेंद्र देसाई की अगुआई में कांग्रेस की सरकार चल रही थी, कांग्रेस के अंदर मोरारजी कैंप के गिने जाते थे हितेंद्रभाई. हितेंद्र देसाई 1965 के भारत- पाक युद्ध के दौरान ही गुजरात के तीसरे मुख्यमंत्री बने थे, जब उनके पूर्ववर्ती बलवंतराय मेहता की 19 सितंबर को हवाई दुर्घटना में मौत हो गई थी, पाकिस्तानी हमले के कारण. गुजरात में 1969 आते- आते मोरारजी के खेमे के सामने इंदिरा गांधी ने भी अपना खेमा मजबूत करना शुरू कर दिया था. प्रधानमंत्री होने के कारण सिंडिकेट की जगह उनकी तरफ पाला बदलने शुरू हो गए थे कांग्रेसी नेता, गुजरात भी इससे अछूता कहां रह सकता था.

सियासत की उर्वर भूमि के साथ ही साहित्य, धर्म और आध्यात्म की भूमि भी थी ये. 19वीं सदी के गुजरात में जिस संप्रदाय ने समाज सुधार पर जोर दिया, उस स्वामीनारायण संप्रदाय के भी बड़े मंदिर थे यहां. संत माणेकनाथ को कौन नहीं जानता था, हर कोई उनकी कथा सुनाता था, जिनके आगे सुल्तान अहमद शाह भी विवश हो गये थे.

मान्यता ये है कि शहर के भद्र इलाके में अपना किला बनवाने में लगे सुल्तान अहमद शाह को तब तक कामयाबी नहीं मिली, जब तक उसने बाबा माणेकनाथ को राजी नहीं कर लिया. इस शहर की सुरक्षा के लिए बनाये जा रहे बुर्जों में से पहले बुर्ज का नाम इन्हीं संत माणेकनाथ के नाम पर रखा गया. अहमदाबाद के सबसे पुराने पुल एलिस ब्रिज को, जिसे आज विवेकानंद सेतु के तौर पर जाना जाता है, उसके पूर्वी किनारे पर ही है माणेक बुर्ज. इन्हीं संत माणेकनाथ के नाम पर कोट विस्तार के अंदर पहली रिहाइश का नाम रखा गया माणेक चौक, जहां संघ और जनसंघ दोनों ने अपने पहले कार्यालय खोले थे.

इसी शहर में वो ऐतिहासिक जगन्नाथ मंदिर भी है, जहां की रथयात्रा उड़ीसा के पुरी जैसी ही मशहूर थी. मंदिर शहर की धार्मिक गतिविधियों का केंद्र था. दिगंबर और निर्मोही, इन दोनों ही अखाड़ों के साधु- संत रहा करते थे यहां. मोदी भी जब 1969 के साल में अहमदाबाद पहुंचे, तो उनकी भी गतिविधियों का जल्दी ही प्रमुख केंद्र बना ये जगन्नाथ मंदिर.

नरेंद्र के झोले में कपड़े-किताबें और मां की तस्वीर
लेकिन वडनगर से अहमदाबाद पहुंचने के बीच मोदी के जीवन में एक छोटा सा मोड़ और था. मोदी जब अपने घर वडनगर पहुंचे थे तो पूरे परिवार की खुशियों का ठिकाना नहीं रहा था. मां हीराबा सबसे अधिक प्रसन्न थीं, आखिर उनका लाड़ला नरेंद्र जो घर लौट आया था. मां की आंखें तो खुशी के मारे तब और भर गई थीं, जब उन्होंने अपने बेटे नरेंद्र के झोले को खंगाला था, कपड़े और किताबों के अलावा इसमें जो एक मात्र चीज और मिली थी, वो थी खुद हीराबा की तस्वीर. मां से कितना लगाव था नरेंद्र मोदी का, उसकी ये झलक थी. संन्यासी बनने के लिए निकला बेटा देश के तमाम हिस्सों में भटकने के दौरान भी मां की तस्वीर अपने झोले में रखे हुए था, याद कर रहा था.

नरेंद्र मोदी पीएम बनने के बाद भी जब कभी घर जाते तो मां की सेवा करते थे.

नरेंद्र मोदी पीएम बनने के बाद भी जब कभी घर जाते तो मां की सेवा करते थे.

जब जरूरी लगा प्री- यूनिवर्सिटी की परीक्षा पास करना
हालांकि हीराबा की ये खुशी लंबी नहीं रही. बेटे नरेंद्र ने फिर घर छोड़ने का फैसला कर लिया था, अहमदाबाद जाना चाह रहा था. लेकिन दूसरी बार घर छोड़ने और अहमदाबाद पहुंचने के बीच नरेंद्र मोदी को एक काम और करना था. विसनगर के एमएन कॉलेज से प्री- यूनिवर्सिटी की परीक्षा पास करना. शिक्षा का महत्व कितना है, यहां तक कि रामकृष्ण आश्रम का संन्यासी बनने के लिए भी, मोदी को समझ में आ चुका था. आखिर ग्रेजुएट नहीं होने के कारण ही तो मोदी को चाहत के बावजूद संन्यास दीक्षा नहीं दी थी आश्रम के साधुओं ने, तीन- तीन बार कोशिश करने के बावजूद.

मोदी ने प्री- यूनिवर्सिटी की परीक्षा देने की ठानी, लेकिन न तो ज्यादा क्लास कर पाए थे, और न थी पूरी तैयारी. सिर्फ 89 दिन ही तो कॉलेज गये थे उस सत्र में मोदी. लेकिन मोदी का इरादा मजबूत था. मोदी ने मार्च- अप्रैल 1969 में प्री- साइंस की परीक्षा दी, जिसमें फिजिक्स, केमिस्ट्री, मैथ्स, बायोलॉजी जैसे विषयों के अलावा अंग्रेजी का भी पर्चा था.

जिस विषय में ग्रेस मिला, उसी में हासिल की महारत
रोचक तथ्य ये है कि मोदी विज्ञान से जुड़े पर्चों में तो आसानी से पास हो गए, लेकिन अंग्रेजी में उन्हें ग्रेस मार्क्स से पास होना पड़ा. पांच नंबर का ग्रेस उन्हें इसके लिए मिला. उस वक्त भला ये किसे पता था कि ग्रेस मार्क्स से अंग्रेजी में उत्तीर्ण होने वाले मोदी अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से, इसी अंग्रेजी में महारत हासिल कर लेंगे, प्रधानमंत्री के तौर पर वो दुनियाभर में अंग्रेजी में धमाकेदार भाषण करते दिखेंगे और बड़े- बड़े वैश्विक नेताओं के साथ अंग्रेजी में आसानी से बात कर रहे होंगे.

अप्रैल 1969 में प्री- साइंस की परीक्षा में कामयाबी के बाद मोदी अपनी अगली मंजिल, अहमदाबाद पहुंच गये. यहां आकर वो अपने मामा बाबूलाल हरगोविंददास मोदी की कैंटीन में काम करने लगे, जो शहर के गीता मंदिर इलाके में गुजरात स्टेट रोडवेज के बस अड्डे में थी. लेकिन मोदी मामा की कैंटीन पर आजीविका कमाने के लिए नहीं रुके थे, ये तो सिर्फ अहमदाबाद शहर को समझने, जानने के लिए उनका लांच पैड था.

अहमदाबाद शहर में गीता मंदिर उस समय यातायात का केंद्र था. सभी बसें यहीं से गुजरात और गुजरात के बाहर रवाना होती थीं. बगल में ही माणेकचौक और खाड़िया- गोलवाड़ का इलाका था, जहां से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ, दोनों की गतिविधियां चला करती थीं. संघ के प्रचारक ही नहीं, जनसंघ के नेता भी गीता मंदिर से बस पकड़कर शहर या राज्य के दूसरे हिस्सों में जाते थे. उस जमाने में संघ के प्रचारकों या जनसंघ के नेताओं के पास कार या दूसरी गाड़ियां नहीं होती थीं. साइकिल का जमाना था, जिन इलाकों में बस नहीं जाती थी, वहां किसी संपन्न कार्यकर्ता या समर्थक की कार, मोटर साइकिल या स्कूटर लेकर जाते थे प्रचारक या जनसंघ के नेता.

कार में फ्यूल डलवाने के लिए लेनी पड़ती थी मदद
बाद के दिनों में जब हालात थोड़े सुधरे, तब बड़ी मुश्किल से जाकर एक पुरानी फिएट कार खरीदी गई थी. पूरे प्रदेश यूनिट में अकेली इस कार को शंभाजी नामक ड्राइवर चलाया करते थे. मशहूर था कि जब बसंतराव गजेंद्रगडकर प्रवास पर जाते थे, तो नाथालाल झगड़ा खाड़िया के कार्यालय में बैठते थे और वो लौटकर आते थे, तो नाथालाल प्रवास पर, जिन्हें जनसंघ के कार्यकर्ता नाथाकाका कहते थे. नाथालाल प्रवास के दौरान अपने किसी कार्यकर्ता को ही बोलते थे, इस ‘गाय’ में ‘चारा’ डलवाने के लिए, ताकि वो आगे बढ़ सके. ये फटेहाली थी पार्टी की, उन दिनों में.

बीजेपी को हासिल होने वाली जिस बड़ी फंडिंग को लेकर आज कांग्रेस सहित विपक्षी पार्टियां हल्ला मचाती हैं, 1969 के उस दौर में सारी फंडिंग अमूमन कांग्रेस को जाती थी. जनसंघ को आर्थिक मदद तो दूर, अखबार- पत्रिकाओं में भी जगह विरले ही मिल पाती थी. गुजरात जनसंघ के तत्कालीन महामंत्री वसंतराव गजेंद्रगडकर रोजाना प्रेस को बुलाकर, बड़े मामलों में अपनी पार्टी का रुख और बाकी बातें बताते थे, लेकिन कभी- कभार ही ये अखबारों में छप पाती थीं.

ये वो दौर था, जब कांग्रेसी शासन गुजरात सहित देश के ज्यादातर राज्यों में था और केंद्र में इंदिरा गांधी सिंडिकेट के खिलाफ बगावत कर अपनी जगह मजबूत कर चुकी थीं. उस दौर में कांग्रेस के छुटभैये नेताओं की बातें भी अखबारों में आसानी से जगह पा जाती थीं, बड़े नेताओं की कौन कहे. इतिहास क्रूर होता है, सारे दिन एक जैसे नहीं होते, इसका अहसास कांग्रेस के मौजूदा नेताओं को हो सकता है.

उन दिनों कार्यकर्ताओं की फौज नहीं थी
ऐसे ही राजनीतिक दौर में मोदी की मुलाकात एक दिन अंबालाल कोष्ठी नामक जनसंघ के एक युवा कार्यकर्ता से हुई, जो बगल में ही रहता था. अंबालाल ने मोदी को जनसंघ से जुड़ जाने के लिए कहा, एक से भले दो के अंदाज में. अंबालाल उस समय मणिनगर इलाके के कांकरिया वार्ड में जनसंघ के महामंत्री थे, मोदी को ये जिम्मेदारी लेने के लिए कहा. उस समय न तो आज की बीजेपी की तरह कार्यकर्ताओं की बड़ी फौज थी, और न ही ढंग के दफ्तर. ढूंढ- ढूंढ कर युवाओं को जनसंघ में शामिल होने के लिए तैयार किया जाता था, ताकि पार्टी का काम आगे बढ़ सके.

जब जनसंघ ने मनाया एक सीट जीतने का जश्न
कार्यकर्ताओं की संख्या कम थी, लेकिन मनोबल काफी ऊंचा. चुनाव में टिकट के लिए मारपीट नहीं होती थी, बल्कि आपसी सहमति से खड़ा कराया जाता था उम्मीदवार को, जीतने की बड़ी उम्मीद के साथ नहीं, बल्कि डिपॉजिट बच जाए तो खुशी मनाने के लिए. कारण भी था, गुजरात की स्थापना के बाद हुए तमाम चुनावों में जनसंघ को खास कामयाबी नहीं मिली थी. सिर्फ दो साल पहले, 1967 के चुनाव में उनका एकमात्र विधायक जीता था, राजकोट से, चिमनभाई शुक्ल के तौर पर. जीत के बाद शुक्ल को ट्रॉफी की तरह सिर्फ गुजरात ही नहीं, देश के बाकी हिस्सों में भी घुमाया गया था, अकेले विधायक की ये जीत, उन दिनों में, जनसंघ के लिए इतना महत्व रखती थी.

मामा की कैंटीन में बैठे नरेंद्र मोदी की जब अंबालाल कोष्ठी से मुलाकात हुई, कोष्ठी उस वक्त शहर के मणिनगर इलाके के कांकरिया वार्ड के जनसंघ का काम करने के साथ ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दफ्तर भी जाया करते थे. कोष्ठी के साथ ही मोदी एक दिन संघ भवन भी गये, जहां मोदी का परिचय संघ के तत्कालीन प्रमुख प्रचारकों से हुआ, जिनमें प्रांत प्रचारक लक्ष्मणराव ईनामदार उर्फ वकील साहब भी थे.

मोहन भागवत के पिता जला रहे थे संघ की जोत
संघ की दृष्टि से गुजरात को औपचारिक तौर पर प्रांत का दर्जा एक साल पहले 1968 में ही मिला था, हालांकि संघ की गतिविधियां गुजरात में आजादी के पहले से ही चल रही थीं. मौजूदा सरसंघचालक मोहन भागवत के पिता मधुकरराव भागवत तो गुजरात में आजादी के पहले ही संघ की जोत जलाने आ गये थे. मां के देहांत के बाद परिवार के बाकी सदस्यों की देखभाल के लिए शादी करने को मजबूर हुए मधुकरराव आजादी के बाद भी अगले दो साल तक अहमदाबाद में किराये का घर लेकर संघ का काम करते रहे थे.

लेकिन गुजरात में संघ कार्य का व्यापक विस्तार वकील साहब के समय में हुआ. सौराष्ट्र से लेकर दक्षिण, मध्य और उत्तर गुजरात तक. उत्तर गुजरात में संघ कार्य का विस्तार करने के लिए पहुंचे वकील साहब मोदी से भी मिल चुके थे वडनगर की शाखा में, जहां बाल स्वयंसेवक के तौर पर जाते थे मोदी. अहमदाबाद में जब दोनो की मुलाकात संघ भवन में हुईं, तो पुरानी यादें फिर से ताजा हो गईं.

प्रांत प्रचारक के तौर पर वकील साहब सिर्फ संघ ही नहीं, संघ के तमाम आनुषांगिक संगठनो की भी देखभाल कर रहे थे, उनकी चिंता कर रहे थे. आखिर सभी संगठन अपनी जड़ें ही तो जमा रहे थे, ज्यादातर की स्थापना पिछले दो दशक में ही हुई थी. खुद संघ का दायरा बढ़ाने की चुनौती भी थी. प्रचारकों की संख्या कम थी, ज्यादातर शहरों में संघ की गतिविधियां या तो किराए के मकानों में चला करती थीं, या फिर किसी मंदिर से, जहां प्रचारकों को ठहरने की जगह मिल जाती थी. इस उद्भव काल में वकील साहब को संघ ही नहीं, संघ से जुड़े सभी संगठनों की गतिविधियों पर निगाह रखनी पड़ती थी.

एक पैर रेल में और दूसरा पैर जेल में
वकील साहब के सहयोगी और आरएसएस के प्रचारक रहे नाथालाल झगड़ा उस समय जनसंघ को मजबूती देने में लगे हुए थे, संगठन मंत्री के तौर पर, जिनका सूत्रवाक्य था, एक पैर रेल में और दूसरा पैर जेल में. यानी संगठन के विस्तार के लिए लगातार भ्रमण करते रहना और आंदोलन के जरिये लोगों की समस्याएं सुलझाने और सड़क पर उतरने के कारण जेल जाने की तैयारी भी रखना. जनसंघ अपने शुरुआती दिनों में लोगों की समस्याओं को लेकर किये गये आंदोलनों के कारण ही जनता के दिल में जगह बना पाई.

नरेंद्र मोदी, डॉक्टर वणीकर और केका शास्त्री
वकील साहब और नाथालाल झगड़ा के साथ आत्मीयता स्थापित होने के साथ ही मोदी उस दौर में दो और लोगों के करीब आए, डॉक्टर वीए वणीकर और केका शास्त्री के. डॉक्टर वीए वणीकर यानी विश्वनाथ अनंतराव वणीकर और केका शास्त्री यानी केशवराम काशीराम शास्त्री. एक मशहूर डॉक्टर- पैथोलॉजिस्ट तो दूसरा संस्कृत, व्याकरण और इतिहास का प्रकांड विद्वान. लेकिन दोनों में एक चीज कॉमन थी, दोनों विश्व हिंदू परिषद के संस्थापक सदस्य थे, जिसकी स्थापना पांच साल पहले ही 29 अगस्त 1964 को हुई थी.

मुंबई के सांदीपनी साधनालय में, संघ प्रमुख गोलवलकर के आह्वान पर, जब विश्व हिंदू परिषद की स्थापना के लिए बैठक हुई थी, उसमें सिख नेता मास्टर तारा सिंह, शिरोमणी अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष ज्ञानी भूपिंदर सिंह, केएम मुंशी, स्वामी शंकरानंद सरस्वती, लालचंद हीराचंद, एमएन घटाटे जैसी बड़ी हस्तियों के साथ डॉक्टर वणीकर और केका शास्त्री भी मौजूद रहे थे.

वर्ष 1966 में जब विश्व हिंदू परिषद की गुजरात इकाई का गठन हुआ, तो उसके मंत्री बने थे केका शास्त्री, अध्यक्ष बनाये गये थे चतुर्भुज दास चीमनलाल सेठ और पहले संगठन मंत्री बने थे भानुशंकर उपाध्याय. पैथोलॉजी लैब चला रहे, दीन दुखियों की सेवा कर रहे डॉक्टर वणीकर बिना कोई औपचारिक पद लिये, परिषद के काम को आगे- बढ़ाने में तन- मन- धन से खूब सहयोग कर रहे थे, लगातार आदिवासी विस्तारों का दौरा कर रहे थे, ताकि गरीब वनवासियों को मिशनरी अपने चंगुल में न फंसा सकें, वो मुख्यधारा से कट न सकें.

चुनौती बड़ी, काम ज्यादा, कार्यकर्ता कम 
शुरुआती दिनों में संघ और जनसंघ की तरह परिषद के सामने भी चुनौती काफी बड़ी थी, काम ज्यादा था, लेकिन कार्यकर्ता कम थे. इसलिए मोदी वकील साहब और नाथाभाई के साथ ही डॉक्टर वणीकर और शास्त्रीजी का भी हाथ बंटाने लगे, हिंदू समाज को जोड़ने में, जहां समाज के अंदर जातिवाद और छुआछूत की समस्या तो थी ही, आदिवासी इलाकों में धर्मांतरण की समस्या भी गंभीर थी. हालात ये थे कि सिर्फ हिंदू समाज के अंदर ही एकता की कमी नहीं थी, साधु, संत, महंत, महामंडलेश्वर और शंकराचार्य भी किसी मुद्दे पर एक साथ बैठने को तैयार नहीं थे.

करीब हजार वर्षों की गुलामी के कारण हिंदू समाज का मनोबल टूटा हुआ था. जो हिंदू, सनातनी भारत आध्यात्मिक और आर्थिक, दोनों ही दृष्टि से दुनिया भर में अग्रणी था, विश्व गुरु था, सोने की चिड़िया बना हुआ था, वो इस्लामी और अंग्रेज शासन के दौरान हुई लूट- खसोट के कारण बदहाली के दौर में पहुंच चुका था.

हिंदुओं को खुद अपनी सनातन संस्कृति और इतिहास का न तो भान रह गया था और न ही वो इसमें गौरव ले रहे थे. पढ़े- लिखे होने का मतलब सबसे पहले धर्म से ही विमुखता हो चुकी थी, खास तौर पर आजादी के तुरंत बाद के नेहरूवादी दौर में, जहां वामपंथी चरमपंथी अपनी विकृत विदेशी- पश्चिमी सोच के तहत जो कुछ भी भारत के सनातनी मूल्य थे, उसे गलत ठहराने में लगे हुए थे.

ऐसे माहौल में परिषद के काम को आगे बढ़ाने के लिए अहमदाबाद में धार्मिक गतिविधियों के केंद्र रहे जगन्नाथ मंदिर का ही चुनाव किया गया, जो शहर के जमालपुर इलाके में मौजूद था. जगन्नाथ मंदिर के सामने की एक इमारत, जो मंदिर ट्रस्ट की ही थी, उसी के दो कमरों में विश्व हिंदू परिषद का कार्यालय खोला गया. मोदी मामा की कैंटीन तो पहले ही छोड़ चुके थे, ज्यादातर समय वो जगन्नाथ मंदिर और यहां मौजूद परिषद के कार्यालय में बिताने लगे, हिंदू समाज को जोड़ने के बृहद मिशन में लगे परिषद के अधिकारियों, प्रचारकों और संतों का हाथ बंटाते हुए. मोदी के जीवन में ये एक और नये अध्याय की शुरुआत थी.

Tags: Narendra modi, PM Modi, RSS



Source link

RELATED ARTICLES

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisment -
Google search engine

Most Popular

Recent Comments