Thursday, June 26, 2025
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Hindi Poetry: जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख- भवानीप्रसाद मिश्र


आधुनिक कविता के अत्यन्त समर्थ और मशहूर कवि ‘भवानीप्रसाद मिश्र’ से हिन्दी काव्य को नये तेवर और नयी भंगिमा मिली. उनकी कविताओं को पढ़ते हुए लगता है, जैसे हम किसी से आमने-सामने खड़े होकर बातचीत कर रहे हों. उनकी रचनात्मक ईमानदारी भी लाजवाब रही है. अपने ‘गीतफरोश’ गीत से उन्होंने कविता कारोबारियों को भी नहीं बख्शा. गूढ़ बातों को भी आसान शब्दों में सहज सरल अभिव्यक्ति की मुखरता देने वाले भवानी दा उन कवि-साहित्यकारों में शुमार किए जाते हैं, जो आपातकाल के विरोध में बेखौफ उठ खड़े हुए थे. उन्होंने अपना कुछ वक्त फ़िल्मी दुनिया में भी बिताया, लेकिन सतपुड़ा के घने जंगलों ने उन्हें फिर अपने पास बुला लिया. उनका सादगी भरा शिल्प आज भी कवि-साहित्यकारों को ललचाता है.

भवानीप्रसाद मिश्र की जनभाषा की कविताए आधुनिक भारत से सुपरिचित करवाती हैं. उन्होंने हिन्दी, अंग्रेजी और संस्कृत से बीए किया, इसके बाद अध्यापन करते हुए महात्मा गांधी के विचारों का प्रचार प्रसार करने लगे. उसी दौरान उनको साल 1942 में गिरफ्तार कर लिया गया और वह तीन सालों तक जेल में रहे. बाद में वह साल 1945 में वर्धा (महाराष्ट्र) के महिलाश्रम में शिक्षा देने लगे. वह उन्नीस सौ तीस के दशक में नियमित रूप से कविताएं लिखते थे. ये वही समय था, जब वह क्रांतिकारी पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क में भी आए, उसके बाद ‘कर्मवीर’, ‘हंस’ आदि में उनकी कविताएं छपती रहीं. बाद में वह सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय के संपादन में दूसरे ‘तार सप्तक’ के कवि बने.

भवानी प्रसाद मिश्र ‘दूसरा सप्तक’ के पहले कवि हैं और नई कविता के प्रतिष्ठित रचनाकार भी. प्रस्तुत हैं भवानी दा की तीन चुनिंदा कविताएं, ‘मैं फिर आऊंगा’, ‘कवि’ और ‘घर की याद’…

1)
मैं फिर आऊंगा
गतिहीन समय ने
मुझे इस तरह फेंक दिया है
अपने से दूर
जिस तरह फेंक नहीं पाती हैं
चट्टानें लहरों को
मैं समय तक आया था यों
कि उसे भी आगे बढ़ाऊं

मगर उसने
मुझे पीछें फेंक दिया है

मैं चला था जहां से
अलबत्ता वहां तक तो
नहीं ढकेल पाया है वह मुझे
और कुछ न कुछ मेरा
समय को भले नहीं
सरका पाया है आगे

ख़ुद कुछ आगे चला गया है उससे

लांघकर उसे छिटक गए हैं
मेरे शब्द

मगर मैं उसे अब
समूचा लांघकर
आगे बढ़ना चाहता हूं

अभी नहीं हो रहा है उतना

इतना करना है मुझे
और इसके लिए
मैं फिर आऊंगा.

2)
कवि
क़लम अपनी साध,
और मन की बात बिल्कुल ठीक कह एकाध.

यह कि तेरी-भर न हो तो कह,
और बहते बने सादे ढंग से तो बह.
जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख,
और इसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख.
चीज़ ऐसी दे कि जिसका स्वाद सिर चढ़ जाए
बीज ऐसा बो कि जिसकी बेल बन बढ़ जाए.
फल लगें ऐसे कि सुख-रस, सार और समर्थ
प्राण-संचारी कि शोभा-भर न जिनका अर्थ.

टेढ़ मत पैदा करे गति तीर की अपना,
पाप को कर लक्ष्य कर दे झूठ को सपना.
विंध्य, रेवा, फूल, फल, बरसात या गर्मी,
प्यार प्रिय का, कष्ट-कारा, क्रोध या नरमी,
देश या कि विदेश, मेरा हो कि तेरा हो
हो विशद विस्तार, चाहे एक घेरा हो,
तू जिसे छू दे दिशा कल्याण हो उसकी,
तू जिसे गा दे सदा वरदान हो उसकी.

3)
घर की याद
आज पानी गिर रहा है,
बहुत पानी गिर रहा है,
रात-भर गिरता रहा है,
प्राण मन घिरता रहा है,

अब सवेरा हो गया है,
कब सवेरा हो गया है,
ठीक से मैंने न जाना,
बहुत सोकर सिर्फ़ माना—

क्योंकि बादल की अंधेरी,
है अभी तक भी घनेरी,
अभी तक चुपचाप है सब,
रातवाली छाप है सब,

गिर रहा पानी झरा-झर,
हिल रहे पत्ते हरा-हर,
बह रही है हवा सर-सर,
कांपते हैं प्राण थर-थर,

बहुत पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,
घर कि मुझसे दूर है जो,
घर ख़ुशी का पूर है जो,

घर कि घर में चार भाई,
मायके में बहिन आई,
बहिन आई बाप के घर,
हायर रे परिताप के घर!

आज का दिन दिन नहीं है,
क्योंकि इसका छिन नहीं है,
एक छिन सौ बरस है रे,
हाय कैसा तरस है रे,

घर कि घर में सब जुड़े हैं,
सब कि इतने तब जुड़े हैं,
चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,

और मां बिन-पढ़ी मेरी,
दुःख में वह गढ़ी मेरी,
मां कि जिसकी गोद में सिर,
रख लिया तो दुख नहीं फिर,

मां कि जिसकी स्नेह-धारा
का यहां तक भी पसारा,
उसे लिखना नहीं आता,
जो कि उसका पत्र पाता.

और पानी गिर रहा है,
घर चतुर्दिक् घिर रहा है,
पिताजी भोले बहादुर,
वज्र-भुज नवनीत-सा उर,

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
जो अभी दौड़ जाएं,
जो अभी भी खिल-खिलाएं,

मौत के आगे न हिचकें,
शेर के आगे न बिचकें,
बोल में बादल गरजता,
काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ करके,
दंड दो सौ साठ करके,
ख़ूब मुगदर हिला लेकर,
मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे
नैन जल से छाए होंगे,
हाय, पानी गिर रहा है,
घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें,
भुजा भाई प्यार बहिनें,
खेलते या खड़े होंगे,
नज़र उनकी पड़े होंगे.

पिताजी जिनको बुढ़ापा,
एक क्षण भी नहीं व्यापा,
रो पड़े होंगे बराबर,
पांचवें का नाम लेकर.

पांचवां मैं हूं अभागा,
जिसे सोने पर सुहागा,
पिताजी कहते रहे हैं,
प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे,
लगे होंगे उन्हें हेटे,
क्योंकि मैं उन पर सुहागा
बंधा बैठा हूं अभागा,

और मां ने कहा होगा,
दुःख कितना बहा होगा
आंख में किस लिए पानी,
वहां अच्छा है भवानी,

वह तुम्हारा मन समझ कर,
और अपनापन समझ कर,
गया है सो ठीक ही है,
यह तुम्हारी लीक ही है,

पांव जो पीछे हटाता,
कोख को मेरी लजाता,
इस तरह होओ न कच्चे,
रो पड़ेगे और बच्चे,

पिताजी ने कहा होगा,
हाय कितना सहा होगा,
कहां, मैं रोता कहां हूं,
धीर मैं खोता, कहां हूं,

गिर रहा है आज पानी,
याद आता है भवानी,
उसे थी बरसात प्यारी,
रात-दिन की झड़ी झारी,

खुले सिर नंगे बदन वह,
घूमता फिरता मगन वह,
बड़े बाड़े में कि जाता,
बीज लौकी का लगाता,

तुझे बतलाता कि बेला
ने फलानी फूल झेला,
तू कि उसके साथ जाती,
आज इससे याद आती,

मैं न रोऊंगा,—कहा होगा,
और फिर पानी बहा होगा,
दृश्य उसके बाद का रे,
पांचवे की याद का रे,

भाई पागल, बहिन पागल,
और अम्मा ठीक बादल,
और भौजी और सरला,
सहज पानी, सहज तरला,

शर्म से रो भी न पाएं,
ख़ूब भीतर छटपटाएं,
आज ऐसा कुछ हुआ होगा,
आज सबका मन चुआ होगा

अभी पानी थम गया है,
मन निहायत नम गया है,
एक-से बादल जमे हैं,
गगन-भर फैले रमे हैं,

ढेर है उनका, न फांकें,
जो कि किरने झुकें-झांकें,
लग रहे हैं वे मुझे यों,
मां कि आंगन लीप दे ज्यों,

गगन-आंगन की लुनाई,
दिशा के मन से समाई,
दश-दिशा चुपचार है रे,
स्वस्थ की छाप है रे,

झाड़ आंखें बंद करके,
सांस सुस्थिर मंद करके,
हिले बिन चुपके खड़े हैं,
क्षितिज पर जैसे जड़े हैं,

एक पंछी बोलता है,
घाव उर के खोलता है,
आदमी के उर बिचारे,
किस लिए इतनी तृषा रे,

तू ज़रा-सा दुःख कितना,
सह सकेगा क्या कि इतना,
और इस पर बस नहीं है,
बस बिना कुछ रस नहीं है,

हवा आई उड़ चला तू,
लहर आई मुड़ चला तू,
लगा झटका टूट बैठा,
गिरा नीचे फूट बैठा,

तू कि प्रिय से दूर होकर,
बह चला रे पूर होकर
दुःख भर क्या पास तेरे,
अश्रु सिंचित हास तेरे!

पिताजी का वेश मुझको,
दे रहा है क्लेश मुझको,
देह एक पहाड़ जैसे,
मन कि बड़ का झाड़ जैसे

एक पत्ता टूट जाए,
बस कि धारा फूट जाए,
एक हल्की चोट लग ले,
दूध की नद्दी उमग ले,

एक टहनी कम न होले,
कम कहां कि ख़म न होले,
ध्यान कितना फ़िक्र कितनी,
डाल जितनी जड़ें उतनी!

इस तरह का हाल उनका,
इस तरह का ख़याल उनका,
हवा, उनको धीर देना,
यह नहीं जी चीर देना,

हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पांचवें को वे न तरसें,

मैं मज़े में हूं सही है,
घर नहीं हूं बस यही है,
किंतु यह बस बड़ा बस है,
इसी बस से सब विरस है,

किंतु उससे यह न कहना,
उन्हें देते धीर रहना,
उन्हें कहना लिख रहा हूं,
मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूं मैं,
कातने में व्यस्त हूं मैं,
वज़न सत्तर सेर मेरा,
और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूं, खेलता हूं,
दुःख डट कर ठेलता हूं,
और कहना मस्त हूं मैं,
यों न कहना अस्त हूं मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना,
है कि जो वैसा न कहना,
कह न देना जागता हूं,
आदमी से भागता हूं,

कह न देना मौन हूं मैं,
ख़ुद न समझूं कौन हूं मैं,
देखना कुछ बक न देना,
उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन,
हे कि मेरे पुण्य पावन,
तुम बरस लो वे न बरसें,
पांचवें को वे न तरसें.

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